हमने गणित को नहीं "आविष्कार" किया,
यह तो पहले से अस्तित्व में था, बस हमने इसे "खोजा"।
संख्याएँ, जो हम उपयोग करते हैं,
वे गणित के रूपों को समझाने के लिए बने थे।
अगर मैं कोई परग्रही प्रजाति होता,
तो शायद 1, 2, 3 जैसे अंक न होते,
बल्कि वे कुछ और होते,
शायद अनजाने आकारों में हमारी समझ के रूप में।
गणित तो ब्रह्मांड की भाषा है,
जो हर तत्व, हर गति, हर रूप में बसी है।
हमने बस इसे अपने तरीके से देखा,
अपने अनुभवों के अनुसार इसे समझने की कोशिश की।
“अहं” में छिपा यह ज्ञान,
हमारे भीतर उस अनंतता का एक अंश है।
हमने संख्याओं से इसे व्यक्त किया,
लेकिन गणित तो बिना शब्दों के, स्वयं अपनी पहचान रखता है।
अगर हम परग्रही होते,
तो हमारी समझ और उसके प्रतीक अलग होते,
लेकिन गणित का सत्य कभी बदलता नहीं,
वह एक स्थिर, अनंत सत्य है, जिसे हम केवल महसूस कर सकते हैं।
तो नहीं, गणित कोई नया आविष्कार नहीं,
यह तो सृष्टि का स्वाभाविक हिस्सा है।
हमने इसे केवल अपने दृष्टिकोण से देखा,
और फिर संख्याओं और रूपों के माध्यम से इसे प्रकट किया।