संख्या और पृथ्वी का अद्भुत सच



क्या मैं सचमुच इतना छोटा हूँ,
या मेरी सोच में सब कुछ समाया है?
“संख्याएँ”—क्या यह शब्द किसी दूसरे ग्रह से आया?
या फिर इनका जन्म हमारी अपनी पृथ्वी पर हुआ?

हर विचार, हर ज्ञान, हर खोज,
यह सब इस धरा पर ही हुआ।
हमने आकाश को देखा, सूरज की गति को जाना,
फिर हमने "संख्या" का रूप समझा, जो हर चीज़ को मापने का तरीका है।

हमने रेखाओं को गिना, चंद्रमा के चक्कर को समझा,
हमने ब्रह्मांड को “अनंत” (अनन्तम्) माना।
संख्याएँ, केवल प्रतीक नहीं,
वे हमारे अस्तित्व की गहरी समझ का हिस्सा हैं।

क्या हम सच में सोचते हैं कि ये कहीं और से आईं,
जब हमारी बुद्धि ने इन्हें यहाँ खोजा?
हमने ही तो "वस्तु"  के रूप को मापा,
हमने ही तो समय को काल में रखा।

हमारी सभ्यता, हमारी सोच की शक्ति,
हमारी "साधना" ने हमें यह रास्ता दिखाया।
क्या हम कह सकते हैं कि हम अकेले नहीं थे,
जब हमारे विचारों ने "आध्यात्मिक" उन्नति के द्वार खोले?

हर अवधारणा, हर सिद्धांत,
सिर्फ़ हमारी पृथ्वी से ही उभरे।
हमने ही तो "जीवन"  को समझा, और उसकी गति को पहचाना,
संख्याएँ और रूप, सब इसी पृथ्वी के धरातल पर जन्मे।

तो नहीं, यह सोच अलौकिक नहीं,
यह हमारी सभ्यता का हिस्सा है।
हमारे पास जो कुछ भी है,
वह हमारी "संकल्पना"  "बुद्धि"  फल है।

हम इस पृथ्वी पर हैं, और यहाँ जो कुछ भी हमने जाना,
वह इस पृथ्वी से ही आया, न कि कहीं और से।
हम खुद में एक अद्भुत अस्तित्व हैं,
जिसने सब कुछ देखा और समझा, जो जीवन को "साक्षात्कार"  के रूप में जीता।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...