प्रतिध्वनियाँ



दिनों तक सुलझाता हूँ उस पल के शब्दों को,  
तार-तार कर देती है हर साँस यह ज़हरबादी चुप्पी।  
तुम्हारी मुस्कान का एक कोना, मेरी आवाज़ का एक स्वर—  
कागज़ की नाव सा बह गया, जहाँ तुम्हारी यादों की नदी सूखी।  

तुम्हारी आँखों में क्या मेरा नाम बचा था?  
या हवा के झोंके से मिट गया, जैसे रेत पर लिखी कोई स्याही?  
मैंने गिना हर लहर, हर इशारे की गहराई तलाशी,  
पर तुम्हारे दिल की धड़कनों ने तो सिर्फ़ समय को थामा था।  

वो जो मैंने कहा, वो जो नहीं कह पाया—  
सब तुम्हारे कानों में गूँजे बिना ही मर गए,  
जैसे दीवार से टकराकर लौट आई कोई प्रार्थना।  
तुम्हारी चुप्पी ने सिल दिए मेरे सवालों के घाव,  
और मेरी बेचैनी तुम्हारी नींद में कहीं खो गई।  

मैं अब भी उस रास्ते पर खड़ा हूँ, जहाँ हम मिले थे,  
तुम्हारी छाया तक बिखर गई है धूप के टुकड़ों में।  
मेरी उलझनें तुम्हारे लिए बस एक धुआँ थीं,  
जो हवा हो गईं, जब तुमने दरवाज़ा बंद किया।  

तुम्हारी दुनिया में सब कुछ सहज है, निश्चल—  
मेरी लड़खड़ाती साँसें तुम्हारे आकाश में बादल नहीं बनीं।  
अब मैं और मेरे शब्द, दो अलग-अलग समुद्र हैं,  
तुम्हारी रेत पर मेरी लहरों के निशान भी मिट गए...