नयन मिले हैं देखन को, मन मिला परख विचार,
सत्य–असत्य की रेखा में, करता मैं व्यवहार।
भीड़ जहाँ चुप बैठी है, मैं प्रश्न वहाँ उठाऊँ,
विवेक की शीतल ज्योति से, हर राह नई दिखाऊँ।
कहते मुझसे लोग सभी — “तू न्यायाधीश बना”,
मैं कहता — हाँ! यही तो है, जीवन का बस गहना।
मान न लूँ झूठ को सत्य, चाहे जग कुछ बोले,
धर्मध्वजा मैं ऊँची रखूँ, आँधी चाहे डोले।
भीड़ भले ही बह जाए, संग झूठे प्रलोभन में,
मैं खड़ा रहूँ अडिग स्वयं, सत्य-ज्योति के आलोकन में।
नत न होऊँ सुविधा के हित, न झुकूँ कभी भ्रम में,
ईश्वर ने जो बुद्धि दी, वो शुद्ध रहे हर क्षण में।
जो कहे मुझे कठोर मनुज, घमंड का अवतार,
उससे कह दूँ — विवेक ही है, आत्मा का आधार।
ममता से, प्रेम से, चेतन से, मैं निर्णय अपनाऊँ,
भीतर के उस सत्य दीप से, जग की राह जगाऊँ।
साधक हूँ मैं, अंधा नहीं, जो भीड़ में बह जाऊँ,
शब्द–शब्द को तोल–विचार, पथ अपना मैं पाऊँ।
मानवता का यही धर्म है — अंतरज्योति जलाना,
मिथ्या से ऊपर उठ कर के, सत्य पथ को अपनाना।