⚔️ प्रथम विश्व युद्ध (1914–1918)
प्रथम विश्व युद्ध, जिसे 'महायुद्ध' भी कहा जाता है, 1914 से 1918 तक लड़ा गया और इसने यूरोप और बाकी दुनिया पर गहरा प्रभाव डाला। यह युद्ध प्रमुख रूप से दो गठबंधनों के बीच हुआ: एक ओर था त्रैतीय सहयोग (Triple Entente), जिसमें फ्रांस, रूस और ब्रिटेन शामिल थे, जबकि दूसरी ओर था त्रैतीय शक्ति (Triple Alliance), जिसमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, और इटली शामिल थे।
युद्ध का मुख्य कारण विभिन्न देशों के बीच उपनिवेशों और सैन्य शक्ति को लेकर बढ़ते हुए तनाव थे। इसके अलावा, सैन्य गठबंधनों, राष्ट्रवाद, और युद्ध की शुरुआत में साम्राज्यवादी विवाद भी प्रमुख कारण थे। 1914 में ऑस्ट्रिया-हंगरी के आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या ने इस युद्ध की शुरुआत को उत्पन्न किया।
युद्ध में, जर्मनी और अन्य केंद्रीय शक्तियों को अंततः हार का सामना करना पड़ा। 1918 में युद्ध समाप्त हुआ और वर्साय संधि (Treaty of Versailles) पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत जर्मनी को भारी वित्तीय, राजनीतिक, और सैन्य प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा।
जर्मनी की हार और वर्साय संधि के परिणाम
वर्साय संधि ने जर्मनी को युद्ध के लिए दोषी ठहराया और उसे बड़ी आर्थिक जिम्मेदारियों को उठाने का आदेश दिया। संधि के अनुसार, जर्मनी को भारी युद्ध मुआवजे का भुगतान करना पड़ा, अपनी सेना को सीमित करना पड़ा, और अपनी कई महत्वपूर्ण भूमि क्षेत्रों को खोना पड़ा। इस संधि ने जर्मनी में असंतोष और क्रोध को जन्म दिया, जो आगे चलकर नाजी पार्टी के उभार का कारण बना।
जर्मनी की हार और वर्साय संधि के परिणामस्वरूप, जर्मन समाज में व्यापक सामाजिक और आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ। बेरोजगारी बढ़ी, मुद्रास्फीति का संकट आया और जनता में असंतोष की भावना जागृत हुई। यह संकट जर्मन समाज के विभिन्न वर्गों के बीच आक्रोश और असंतोष को बढ़ा रहा था, जो बाद में हिटलर और नाजी पार्टी के उभार के लिए आधार बना।
🕊️ युद्ध के बाद यहूदियों की स्थिति
यहूदियों का युद्ध में योगदान और उनकी स्थिति में परिवर्तन
प्रथम विश्व युद्ध में, जर्मनी और उसकी सहयोगी शक्तियों के लिए कई यहूदियों ने सैन्य सेवा दी थी। यहूदियों ने जर्मनी की सेना में अपनी भूमिका निभाई और युद्ध के दौरान कई यहूदी सैनिकों ने वीरता के पुरस्कार भी जीते। युद्ध के बाद, यहूदियों ने खुद को जर्मन समाज का हिस्सा साबित किया और उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए जर्मन सरकार द्वारा उन्हें नागरिक अधिकार प्रदान किए गए।
हालांकि, युद्ध के बाद यहूदी समुदाय की स्थिति में कुछ बदलाव आया। यहूदियों को नागरिक अधिकार मिले, लेकिन समाज में उनकी स्थिति को लेकर असंतोष और पूर्वाग्रह बढ़ने लगे। बहुत से जर्मन नागरिक यह मानने लगे कि यहूदी युद्ध हारने के बाद अपने देश की असफलता के लिए जिम्मेदार थे।
यहूदियों के खिलाफ बढ़ती हुई नफ़रत और आरोप
जैसे-जैसे जर्मनी में सामाजिक और आर्थिक संकट गहरा रहा था, यहूदी समुदाय को शत्रुता और नफ़रत का सामना करना पड़ा। युद्ध हारने के बाद, जर्मन समाज में यहूदी समुदाय के खिलाफ कई आरोप लगाए गए। यहूदियों को "सिर्फ अपने ही हितों के लिए काम करने वाला" और "देशद्रोही" के रूप में पेश किया गया। उन्हें यह आरोपित किया गया कि वे जर्मनी की हार के लिए जिम्मेदार थे और उन्होंने युद्ध के दौरान जर्मन सेना के खिलाफ साजिश की थी।
इस तरह की विचारधाराओं का प्रसार हुआ, और धीरे-धीरे यहूदियों के खिलाफ घृणा बढ़ने लगी। यह घृणा और नफ़रत 1930 के दशक में नाजी पार्टी के उभार के साथ और भी प्रबल हो गई।
जर्मनी में यहूदियों की संख्या और उनके अधिकारों में परिवर्तन
युद्ध के बाद जर्मनी में यहूदियों की संख्या लगभग 5,00,000 थी, जो जर्मन समाज का एक छोटा हिस्सा थे। हालांकि, उन्हें आधिकारिक नागरिक अधिकार मिले थे, फिर भी समाज में उनके खिलाफ भेदभाव और पूर्वाग्रह बना हुआ था।
युद्ध के बाद के समय में, जर्मनी में यहूदियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे जर्मन समाज में पूरी तरह से समाहित हो जाएं और यहूदियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए उन्हें सशक्त किया गया। लेकिन नाजी पार्टी के उभार ने सब कुछ बदल दिया।
निष्कर्ष
प्रथम विश्व युद्ध और उसके परिणामों ने जर्मनी को गहरे संकट में डाल दिया, और इसने यहूदियों के खिलाफ घृणा और आरोपों को बढ़ावा दिया। जर्मन समाज में यहूदियों की स्थिति हमेशा ही नाजुक रही, लेकिन युद्ध के बाद और विशेष रूप से नाजी पार्टी के उभार के साथ यह स्थिति और भी खराब हो गई। अगली कड़ी में हम देखेंगे कि कैसे हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ नफरत और उत्पीड़न की विचारधारा को बढ़ावा दिया और किस तरह से नाजी शासन ने यहूदियों के खिलाफ संगठित अभियान चलाया।