एक पल में टूटी धड़कनों की भाषा,
तुम्हारी आँखों में छिपी थी वो निर्मोही चुप्पी की रास।
मैंने पढ़ लिया उस स्याह शाम का अंतराल,
जब तुम्हारी मुस्कान में मेरा सवाल डूबा, बिना किसी लालसा के साथ।
तुम्हारी उंगलियों ने छुआ जो हवा को भी,
वहाँ मेरी बेचैनी ने खुद को समेट लिया,
एक धागा टूटा, पर तुम्हें क्या ख़बर?
तुम तो बिखरे सितारों को गिनते रहे, मेरा अस्तित्व बस एक धुंधला निशान रहा।
वो क्षण—जब तुम्हारी साँसों ने मेरे नाम को ठहराया नहीं,
मौसम बदला, मानो बरसात में सूखे पत्तों का मर जाना।
मैंने देखा अपनी परछाई को तुम्हारे आईने में घुलते,
तुम्हारी नज़रों ने उसे पहचाना भी नहीं, बस एक धुआँ-सा छूटा।
अब मेरे शब्द तुम तक जाते हैं पर लौट आते हैं,
खालीपन के पुल से गुज़रकर, बिना कोई सन्नाटा तोड़े।
तुम्हारी दुनिया में अब कोई भूकंप नहीं आया,
मेरे भीतर का सारा ज्वालामुखी रेत में दफ़न हो गया।
—क्या तुमने सुना कभी टूटते हुए धागे का स्वर?
वो मेरी चीख़ थी, जो तुम्हारी नींद में खो गई अधूरी।
अब दो ध्रुवों के बीच बस एक खाली गली है,
जहाँ मेरे पैरों के निशान अकेले मिटते जाते हैं...