मैंने देखा है,
भीड़ में खड़ा वह व्यक्ति,
जिसकी आंखें झुकी हुई थीं,
लेकिन भीतर चमत्कार की ज्वाला थी।
उसकी कला,
दूसरों को प्रभावित करने की,
मुझे अचंभित कर गई।
उसने मेरा नाम लिया,
मेरे गांव का पता बताया,
और मेरे घर के पास के नीम के पेड़ का भी ज़िक्र किया।
मैं दीवाना हो गया,
उसकी ओर खिंचता चला गया।
लेकिन,
क्या यही धर्म है?
क्या यही सत्य है?
यह प्रश्न भीतर कौंधा,
जैसे अंधेरे में बिजली की चमक हो।
और भीतर से आवाज आई—
"ध्यान दो, यह प्रभाव,
सिर्फ अहंकार की चाल है।"
अहंकार क्या है?
वह हर बार चाहत में पलता है,
कि दुनिया मुझे देखे,
मुझे पहचाने,
मेरे नाम को जपती रहे।
अहंकार को भूख है—
दूसरों के ध्यान की,
दूसरों की स्वीकृति की।
लेकिन क्या यह वास्तविक है?
यह तो पानी पर बनी लकीरों जैसा है,
जो बनते ही मिट जाती हैं।
साधु कौन है?
वह जिसने जाना,
कि न कोई नाम है, न रूप है।
यह सब तो माया है,
गांव, घर, और पहचान—
सिर्फ संसार का हिस्सा हैं।
साधु वह है,
जिसने यह समझ लिया है,
कि आत्मा को किसी पहचान की जरूरत नहीं।
आत्मा स्वतंत्र है,
निराकार, निर्विकार।
अहंकार का खेल:
अहंकार कहता है,
"मुझे देखो, मुझे पहचानो।"
लेकिन आत्मा कहती है,
"मुझे किसी पहचान की जरूरत नहीं।
मैं तो बस हूं,
जैसे सूरज चमकता है,
जैसे चांद अपनी शीतलता लुटाता है।"
अहंकार की जड़ें गहरी हैं,
वह हमें परत दर परत बांधता है,
दूसरों की नज़रों में खुद को देखने की आदत बनाता है।
धर्म का स्वरूप:
धर्म तो वहां है,
जहां कोई चाहत नहीं।
धर्म वह है,
जहां चुप्पी गूंजती है,
जहां ध्यान स्वयं पर केंद्रित होता है।
धर्म का मार्ग अहंकार का अंत है,
वह पानी पर नहीं,
पत्थर पर खुदा हुआ सत्य है।
मेरी चेतना का स्वर:
मैं अब देखता हूं,
उस साधु को,
जो नीम के पेड़ का नाम लेकर,
मुझे प्रभावित करना चाहता है।
मैं समझता हूं,
वह भी कहीं गहरे,
अहंकार के तंतुओं में जकड़ा है।
लेकिन मैं जानता हूं,
आत्मा को किसी भी प्रभाव की जरूरत नहीं।
अब मैं भीतर उतरता हूं,
अपने अहंकार की परतों को पहचानता हूं।
और धीरे-धीरे,
उसे छोड़ने की कला सीखता हूं।
क्योंकि मुझे अब जानना है,
वह सत्य,
जो न नाम से बंधा है,
न रूप से।
बस है,
जैसे आकाश है,
निःसीम, निःशब्द।