मेरा शरीर, पर मेरा नहीं



यह शरीर मेरा नहीं,
बस कुछ वक्त के लिए उधार।
जीवन की राह पर साथ चलता,
धरती पर बिताने को कुछ साल।

मैं इसमें बसा एक यात्री मात्र,
न इसका मालिक, न इसका रचयिता।
यह मिट्टी से बना एक घर,
जो लौटेगा फिर उसी मिट्टी में।

मुझे मिला है इसे संभालने को,
इसकी सीमाएँ समझने को।
न इसे दबाना, न इसे भुलाना,
बस इसके संग अपने धर्म को निभाना।

शरीर आएगा, और चला जाएगा,
पर मैं तो सिर्फ एक राही हूँ।
जो रह जाएगा, वह मेरा कर्म,
जो चलाएगा जीवन का चक्र सदा।

तो क्यों न इसे सम्मान दूँ,
इस यात्रा के साथी को मान दूँ।
क्योंकि यह शरीर मेरा नहीं,
पर मेरे जीवन का अमूल्य सौगात है।


आधी-अधूरी आरज़ू

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