वो जो एक ख़ामोशी थी मेरे भीतर,
न तो डर थी, न हार —
वो एक सच था,
जो मेरी आत्मा वर्षों से ढो रही थी,
कंधों पर लादे,
शब्दों में नहीं, अनुभूति में बोलता हुआ।
मैं समझता था —
हर जाना, एक दोष है,
हर मोड़ लेना, एक कायरता।
पर अब मैं जान गया हूँ —
छोड़ना भी साहस है,
और रुकना भी समझदारी।
यह आत्मसमर्पण नहीं है,
यह आत्मबोध है।
मैंने अपने हर आंसू को
अपने भीतर समेटा है
और वो आंसू अब
मुझे बहने नहीं देते,
मुझे जगाते हैं।
मैं जानता हूँ —
अब यह अध्याय
मेरे हिस्से का नहीं रहा।
इसके अक्षर अब मुझे चुभते हैं,
इन पन्नों में मेरा भविष्य नहीं बसता।
मैं पन्ना पलट रहा हूँ।
क्योंकि अब मुझे
उस रिक्त स्थान को भरना है
जहाँ मेरे जीवन की नई कहानी इंतज़ार कर रही है।
अब मैं विश्वास करता हूँ —
अपनी आत्मा पर,
जिसने हर ज़ख्म को छुपाया,
हर रात मेरी साँसों में
एक नई सुबह की उम्मीद बोई।
मैं जानता हूँ,
मेरी आत्मा झूठ नहीं बोलती।
वो जो भीतर का स्थिर स्वर है,
जो किसी शोर का हिस्सा नहीं बनता,
बस वही मेरी राह है —
जिसे अब मैं आँख मूंदकर पकड़ रहा हूँ।
क्योंकि...
अब मैं जीना चाहता हूँ
बिना किसी अधूरे संवाद के,
बिना किसी जबरन निभाए हुए पात्र के।
मैं अध्याय बंद कर रहा हूँ,
ताकि नया जीवन खुल सके।
"सत्य वो नहीं जो बाहर से आता है,
सत्य वो है जो भीतर सालों से बैठा है
और अब कहता है —
चल, अब तू अपना नया सूरज देख।" 🌞