फिर से उठ, बन शिकारी!


गिरा था, तो क्या हुआ?
आसमान भी कभी झुका?
ये जो जिद है, तेरी पहचान,
हिम्मत के संग बढ़ा तू इंसान।

पिछली बार जो हुआ अधूरा,
इस बार हो मुकाम पूरा।
आधे मन से काम नहीं,
अब दांव पे सबकुछ सही।

सोच, जो तू छोड़ेगा,
दुनिया कैसे तोड़ेगा?
हंसी में तेरा नाम हो,
मंज़िल तेरा गुलाम हो।

"रूठा है समय तो क्या,
फिर से बुलाएगा ये, बना सवेरा नया।"
कदम बढ़ा, बन तू निडर,
राह रोक सके न कोई पत्थर।

जोश ऐसा, जैसे तूफान,
बचने का दे न किसी को सामान।
मस्त चाल, आंखों में शेर,
अबकी बार खुदा भी तेरा फेर।

तो चल, मत देख पीछे,
आसमान को बना अपना नीचे।
इस बार जो ताने सुने,
उनको बना जीत के गहने।

रुकना नहीं, झुकना नहीं,
तूफानों से अब चूकना नहीं।
फिर से उठ, बन शिकारी,
तेरा नाम हो कहानी सारी।


डेडलाइन की रेस

डेडलाइन की रेस

डेडलाइन की रेस में हम सब भाग रहे हैं,
समय की हर इक बूंद को हम निचोड़ रहे हैं।

कागजों पर चल रही कलम की रफ्तार,
जैसे कोई धावक हो, दौड़ता बेजार।

सपनों के सागर में हम तैरते हैं,
लेकिन डेडलाइन के खंजर से घबराते हैं।

हर पल की गिनती में धड़कनें तेज होती हैं,
काम की चिंताओं में रातें भी खोती हैं।

दिमाग की गलियों में विचारों का शोर,
डेडलाइन के आगे सब कुछ लगता है कठोर।

लेकिन जब मंज़िल का होता है दीदार,
मेहनत का हर लम्हा लगता है बेकार।

क्योंकि डेडलाइन की रेस में जीत वही पाता है,
जो धैर्य और हिम्मत से, हर बाधा को मात दे जाता है।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...