प्रेम या छल?



मैंने माना तेरी हर बात,
तेरे हर झूठ को सच समझा।
तेरी कसमों की चादर ओढ़ी,
तेरे हर ज़ख्म को अपना जाना।

तूने कहा था— "सदा साथ रहूँगा",
फिर तलाक़ का दस्तावेज़ थमा दिया।
मैंने पूछा— "हमेशा कहाँ गया?"
तेरी आँखों ने बस मौन रचा दिया।

मेरे देश में बिछड़ना पाप है,
तेरे देश में यह अधिकार है।
यह कैसा प्रेम, जो संग जीने की,
हर सौगंध को धिक्कार है?

तूने कहा था— "मैं तेरा हूँ",
अब क्यूँ यह रिश्ते का सौदा?
प्रेम अगर व्यापार बने तो,
फिर कौन है अपना, कौन पराया?

मैंने चाहा तुझे आत्मा से,
तूने प्रेम को सौदा बना दिया।
तेरी दुनिया में प्यार छलावा,
मेरी दुनिया में व्रत निभा दिया।

— दीपक दोभाल




ज्ञान का स्पर्श



मैंने चाँदनी को छूना चाहा,
पर उसकी ठंडक को समझ न सका।
तुमने बताया, कि यह सूरज की देन है,
जो अंधकार में भी उजास रखती है।

मैंने शब्दों को जाना,
पर उनके भीतर की ध्वनि से अपरिचित था।
तुमने सिखाया, कि हर लय में एक अर्थ छुपा है,
जो हृदय से सुना जाता है।

मैंने समय को बहता देखा,
पर उसे थामने की कला से अनजान था।
तुमने समझाया, कि पल जब जिया जाता है,
तभी वह शाश्वत हो जाता है।

मैंने खुद को देखा,
पर अपनी गहराइयों में उतर न सका।
तुमने मुझे पढ़ाया, कि आत्मा का ज्ञान ही
सबसे मधुर संगति है।

जब तुम सिखाते हो,
तो शब्द नहीं, स्पर्श होता है।
एक ऐसा स्पर्श, जो
मन को भीगने देता है,
और आत्मा को खिलने।


आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...