आज के वैश्विक परिदृश्य में हम पाते हैं कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कई पश्चिमी देशों में बहुसंख्यक धर्म को विशेष अधिकार और समर्थन दिया जाता है। उनके विदेश नीति, राजनयिक संबंधों और यहाँ तक कि मिशनरी गतिविधियों में भी उनकी धार्मिक निष्ठा झलकती है। वहीं, जब भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत और पहचान को सुरक्षित रखने के लिए विदेशी मिशनरी गतिविधियों पर सवाल उठाता है, तो उसे धार्मिक स्वतंत्रता का विरोधी कह दिया जाता है। यह एक गहरा दोहरा मापदंड है जो भारतीय मानसिकता और समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
भारतीय संस्कृति पर विदेशी धार्मिक प्रभाव
औपनिवेशिक काल से ही भारत विदेशी मिशनरी गतिविधियों का लक्ष्य रहा है। इन गतिविधियों का उद्देश्य केवल धर्मांतरण नहीं था, बल्कि भारतीय जनमानस और संस्कृति को परिवर्तित करना भी था। यह सिलसिला आज भी जारी है। जैसे ही भारत अपनी सांस्कृतिक सुरक्षा के प्रति सचेत होता है और उन मिशनरी गतिविधियों पर सवाल उठाता है जो हमारी परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं को प्रभावित करती हैं, उसे तिरस्कार और आलोचना का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका और यूरोप जैसे पश्चिमी देश सार्वजनिक रूप से ईसाई धर्म को प्रचारित करने वाली संस्थाओं को वित्तीय और राजनीतिक सहायता देते हैं। अमेरिका की नीति में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि वे दुनिया के कई देशों में अपने धर्म का प्रसार करने के लिए वित्तीय सहायता और राजनीतिक दबाव का उपयोग करते हैं। वहीँ, भारत जब अपनी संप्रभुता और सांस्कृतिक अखंडता की रक्षा के लिए कदम उठाता है, तो उसे “असहिष्णु” का लेबल दिया जाता है।
भारतीय नेताओं की बदलती सोच
भारतीय नेतृत्व में यह बात अब स्पष्ट होती जा रही है कि विदेशी मिशनरी गतिविधियाँ केवल धार्मिक नहीं हैं बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी भारतीय समाज को प्रभावित करती हैं। इस तरह की गतिविधियों के माध्यम से, विदेशी संस्थाएँ यहाँ के लोगों की मानसिकता और विचारधारा पर नियंत्रण करना चाहती हैं, जो भारतीय समाज के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इसका परिणाम यह हुआ कि वर्तमान सरकार इन गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए अधिक सतर्क हो गई है।
पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता का मापदंड
पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ केवल राज्य का धर्म से पृथक रहना नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी विचारधारा बन चुकी है जो ईसाई धर्म को अप्रत्यक्ष समर्थन देती है। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में "चर्च ऑफ इंग्लैंड" को राज्य का संरक्षण प्राप्त है। इसी तरह, अमेरिका में “फ्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट” के अंतर्गत ईसाई मिशनरियों को कई विशेषाधिकार दिए गए हैं।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का पुनर्विचार
भारत में "नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता" का विचार आज के समय में प्रासंगिक नहीं रह गया है। यह अवधारणा केवल दिखावे की धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देती है। भारत को आज एक ऐसी विचारधारा अपनाने की आवश्यकता है जो उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी हो और भारतीय समाज को संरक्षण प्रदान करे। भारत को अपने बहुसंख्यक हिंदू संस्कृति का खुलेआम सम्मान करते हुए भी अन्य धर्मों के लिए स्थान बनाए रखना चाहिए। यह सचेत रहने का समय है कि विदेशी मिशनरी गतिविधियों को बिना सोचे समझे स्वीकार न किया जाए।
निष्कर्ष
भारतीय समाज और नेतृत्व के लिए अब यह आवश्यक है कि वे इस दोहरे मापदंड को समझें और भारत की सांस्कृतिक और मानसिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कदम उठाएँ। भारतीय धर्मनिरपेक्षता को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है ताकि हमारे देश की संप्रभुता और सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रहे।
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