छांव



            छांव
छांव है ये धूप से बनी
धूप वो जिसने तन को जला दिया
छांव है ये मन के आंगन का
जिसने जलते तन को बूझा दिया

उजले फूलों पर जो काली स्याही पोती
फूलों को खिलने से पहले ही मूरझा दिया
    छांव है ये उसी पेड़ की
 जिसने मूरझे फूलों को फिर से महका दिया
 छांव है मन के आंगन का
जिसने जलते तन को बूझा दिया

पेड़ था एक
जिसकी जड़ो को जहर से सींचा गया
जहर पीकर भी वो पनप गया
छांव है उसी पेड़ की
जिसकी शाखाओं को काटा गया
छांव हे मन के आंगन का
जिसने जलते तन को बूझा दिया

सूरज तो सबका है
फिर क्यों उसकी धूप में कोई जल गया
चांद सा चेहरा तो सबका है
 फिर क्यों किसी में दाग लग गया
छांव है उस रोशनी की
जिसने सारे अंधियारे को मिटा दिया
छांव है ये मन के आंगन का

जिसने जलते तन को बूझा दिया     


   

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...