आत्मा का स्वरूप



उसकी देह पे हंसी आई तुमको,
जो बस एक परछाईं है,
हड्डी, माँस और रक्त की काया,
क्यों इसमें लिप्त होना मन चाही है।

क्या यह सब जानने के बाद भी,
तुमको सच का एहसास नहीं,
जीवात्मा का कोई आकार नहीं,
न ही कोई रूप, कोई वास नहीं।

वह आत्मा है, अनंत, अमर,
जिसमें न रंग, न शरीर का भार,
यह देह तो है बस आभासी परछाई,
माया के जाल में बंधी एक तरंग की काई।

तुम कहो कैसे, किसको लज्जा दें,
जिसे न समय बाँध सकता है, न जगह,
यह माटी का पुतला ढलता-ढलता खो जाता,
पर वह आत्मा का न स्वरूप, न परदा है।

जब आत्मा की पहचान हो जाए,
तो देह की सीमाओं में न बंध पाए,
तब हर देह में देखो दिव्यता,
तुम्हारी चेतना में आए वो जागरूकता।

अब जागो इस सच की ओर,
जहाँ शरीर नहीं, आत्मा का नृत्य है,
आकार रहित, प्रकाश का एक बिंदु,
जो परमात्मा से न कभी अलग है, न बिछुड़ता।

तो जब तक हो यह जीवन का बोध,
उसको नीचा दिखाने का विचार छोड़ो,
हर देह में झाँको आत्मा का अनंत स्वरूप,
बस यही है जागृति, यही है आत्मा का अनुरूप।


निष्कलंक प्रेम


जब प्रेम से हट जाएं लगाव और मोह,
हो जाए जब वह शुद्ध और निराकार,
न हो कोई मांग, बस देना ही देना,
प्रेम बने सम्राट, न हो कोई भिक्षु का द्वार।

जब खुशी मिलती हो केवल इस बात से,
कि किसी ने तुम्हारा प्रेम स्वीकारा है,
बिन किसी स्वार्थ के, बिन किसी शर्त के,
प्रेम हो जैसे निर्मल जलधारा है।

न हो कोई चाहत, न हो कोई बंधन,
प्रेम का अर्थ हो केवल समर्पण,
निस्वार्थ भाव से, पवित्र मन से,
प्रेम हो जैसे आत्मा का वंदन।

जब प्रेम को समझो केवल देने का अधिकार,
तो दिल हो जाता है वाकई उदार,
निष्कलंक, निर्मल, निस्वार्थ हो जब प्रेम,
तब जीवन हो जाता है अद्भुत, निस्संदेह।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...