निष्कलंक प्रेम


जब प्रेम से हट जाएं लगाव और मोह,
हो जाए जब वह शुद्ध और निराकार,
न हो कोई मांग, बस देना ही देना,
प्रेम बने सम्राट, न हो कोई भिक्षु का द्वार।

जब खुशी मिलती हो केवल इस बात से,
कि किसी ने तुम्हारा प्रेम स्वीकारा है,
बिन किसी स्वार्थ के, बिन किसी शर्त के,
प्रेम हो जैसे निर्मल जलधारा है।

न हो कोई चाहत, न हो कोई बंधन,
प्रेम का अर्थ हो केवल समर्पण,
निस्वार्थ भाव से, पवित्र मन से,
प्रेम हो जैसे आत्मा का वंदन।

जब प्रेम को समझो केवल देने का अधिकार,
तो दिल हो जाता है वाकई उदार,
निष्कलंक, निर्मल, निस्वार्थ हो जब प्रेम,
तब जीवन हो जाता है अद्भुत, निस्संदेह।

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