"मैं" रूप में
अब जब देखता हूँ बचपन की तस्वीरें,
थोड़ा हँसता हूँ, थोड़ा शरमा जाता हूँ।
वो बेतुके कपड़े, उलझे बाल,
कभी बहती नाक, कभी गिरे हुए गिरगिट जैसे पोज़…
हाँ, अजीब लगते हैं वो फोटो,
पर एक चीज़ कभी अजीब नहीं लगी —
वो मुस्कान।
वो मुस्कान जो आई थी
बिना सोचे, बिना पोज़ दिए,
बिना इस डर के कि "कैसे दिखूंगा?"
बस आई थी — जैसे बारिश के बाद मिट्टी की ख़ुशबू।
तब ज़िंदगी आसान थी,
हँसी थोड़ी और ज़ोर से आती थी,
और ख़ुशियाँ —
किसी खिलौने, किसी आम के पेड़,
या बारिश की पहली फुहार में छुपी होती थीं।
अब सब कुछ सुंदर है,
पर सलीके से सजा हुआ।
हँसी भी आती है,
पर फिल्टर लगा कर।
उन तस्वीरों में जो गड़बड़ी थी —
वही तो ख़ूबसूरती थी।
क्योंकि वो लम्हे —
बिखरे हुए सही, पर झूठे नहीं थे।
और शायद…
उन्हीं तस्वीरों में
मैं सबसे ज़्यादा 'मैं' था।