मैंने मिट्टी खा ली... और ज़िंदगी बहुत बढ़िया है!

 "मैं" के रुप में

वो मुस्कानें थीं —
"मैंने अभी-अभी मिट्टी खाई है और ज़िंदगी बहुत बढ़िया है" वाली।
ना सफ़ाई की चिंता,
ना मम्मी की डाँट का डर,
बस — मिट्टी भी स्वाद लगी,
और पल भी।

घुटनों पर खरोंच,
चेहरे पर धूल,
और दिल में वो चमक
जो आज लाख मेकअप से भी नहीं आती।

तब ज़िंदगी स्वाद से भरी थी —
चाहे वो गुड़ हो या मिट्टी!
हर चीज़ में जिज्ञासा थी,
हर चीज़ में खेल था।

मैं नहीं जानता था
‘साफ़’ क्या होता है,
या ‘सही’ कैसे दिखते हैं लोग।
पर मैं जानता था
कि खुशी कैसी महसूस होती है।

अब...
सब कुछ सलीके से है।
पर वो बेपरवाह हँसी?
वो किसी पुराने अल्बम में छुपी पड़ी है।

काश कोई दिन फिर ऐसा आए —
जब मैं फिर से मिट्टी खा सकूँ,
और कह सकूँ —
"ज़िंदगी... तू वाक़ई बहुत बढ़िया है!"



प्रेम की बातें

निश्छल प्रेम की बातें हैं अनमोल,
जब छूट जाएं वासना और मोह के जाल,
निर्मल हो प्रेम, शुद्ध और निर्दोष,
न हो आकार, न हो कोई खोज।

जब प्रेम केवल देना हो,
न कोई माँग, न कोई रोक,
जब प्रेम बने सम्राट, न हो भिखारी,
तब ही सच्चे प्रेम की हो जयकारी।

खुशियों की छांव में हो बसेरा,
क्योंकि किसी ने स्वीकारा तुम्हारा प्रेम सवेरा।
नहीं चाहें प्रतिदान, न हो कोई उलाहना,
सिर्फ प्रेम की धारा में बहता रहे मन का क़ाफ़िला।

आओ प्रेम की इस राह पर चलें,
निष्काम, निष्कपट प्रेम में डूबें,
सच्चे हृदय से प्रेम करें सब,
तो ही मिलेगा जीवन का सच्चा अनुभव।