"मैं" के रुप में
वो मुस्कानें थीं —
"मैंने अभी-अभी मिट्टी खाई है और ज़िंदगी बहुत बढ़िया है" वाली।
ना सफ़ाई की चिंता,
ना मम्मी की डाँट का डर,
बस — मिट्टी भी स्वाद लगी,
और पल भी।
घुटनों पर खरोंच,
चेहरे पर धूल,
और दिल में वो चमक
जो आज लाख मेकअप से भी नहीं आती।
तब ज़िंदगी स्वाद से भरी थी —
चाहे वो गुड़ हो या मिट्टी!
हर चीज़ में जिज्ञासा थी,
हर चीज़ में खेल था।
मैं नहीं जानता था
‘साफ़’ क्या होता है,
या ‘सही’ कैसे दिखते हैं लोग।
पर मैं जानता था
कि खुशी कैसी महसूस होती है।
अब...
सब कुछ सलीके से है।
पर वो बेपरवाह हँसी?
वो किसी पुराने अल्बम में छुपी पड़ी है।
काश कोई दिन फिर ऐसा आए —
जब मैं फिर से मिट्टी खा सकूँ,
और कह सकूँ —
"ज़िंदगी... तू वाक़ई बहुत बढ़िया है!"