युद्ध यहीं है




मैं रोज़ दुनिया बचाने की बातें करता हूँ ज़ोरों से,
पर खुद को भूल जाता हूँ ज़हर घुला है रग-रग के छोरों से।
कैसे बचाऊँ जग को मैं, जब भीतर खुद ही हार रहा,
अंजान हूँ उन जालों से, जिनमें मैं हर पल फँस रहा।

मैं साँस में खींच रहा प्लास्टिक, जल में छुपा जहर पीता हूँ,
मिट्टी तक में मिल चुका है वो रोग, जिसे अनदेखा जीता हूँ।
मैं सोचूँ क्रांति बाहर की, पर भीतर घाव गहरे हैं,
जो दुश्मन दिखते नहीं कभी, वही सबसे पहले ठहरे हैं।

मैंने देखा है विज्ञापन बनकर कैसे प्रलोभन आते हैं,
रूप-सौंदर्य की दौड़ में हम कैसे खुद को खो जाते हैं।
क्रीम, सुगंध, रंग-रोगन सब, नक़ली सौगातें लाते हैं,
पर धीरे-धीरे भीतर के सच को चुपचाप चट जाते हैं।

मैंने पूछा खुद से आज, ये युद्ध कहाँ पर जारी है?
मीडिया में नहीं, यहीं, मेरी दिनचर्या में भारी है।
ये रोटी, ये पानी, ये नींद, सब कुछ बिकने आया है,
मेरा शरीर, मेरा मन, धीरे-धीरे मरने पाया है।

मैंने प्रतिज्ञा ली अब खुद से, छोटे कदम उठाऊँगा,
मिट्टी की थाली, मिट्टी का कुल्हड़ फिर से अपनाऊँगा।
नहीं चाहिए चटकीले toxin, नहीं वो चिपकी पैकिंग अब,
सीधा अन्न, सीधी साँसें—यही है असली बैरिक अब।

मैं बोतल छोड़ मिट्टी के घड़े की ठंडक पीना चाहूँगा,
मैं जंगल की चुप्पी में खुद को फिर से जीना चाहूँगा।
ना प्लास्टिक हो होंठों पर, ना रसायन हो भोजन में,
मैं लौट चलूँगा असली पृथ्वी की कोमलता वाले क्षोभन में।

मैं जानता हूँ मुक्ति का रस्ता कोई अख़बार नहीं देगा,
जब तक भीतर बदलाव न हो, बाहर संसार नहीं देगा।
मैं जागूँगा अपने भीतर, यही पहला रण होगा,
जो मैं जीतूँगा स्वयं में, वो ही विश्व का धन होगा।

हाँ, युद्ध यहीं है रोज़ाना, इन आदतों के घेरे में,
सावन ढूँढे कोई बाहर—मैं भीड़ के अँधेरे में।
मैं पूछूँ खुद से प्रतिदिन, “क्या सच में मैं जीवित हूँ?”
या बस एक चलता प्लास्टिक हूँ, जो भीतर से निष्प्राणित हूँ।

तो आज लिखता हूँ प्रतिज्ञा ये, मैं अपने व्रत को थामूँगा,
प्रकृति की गोद में लौटकर, खुद को फिर से थामूँगा।
जब मैं शुद्ध होऊँगा भीतर, तब ही कुछ कह पाऊँगा,
वरना ये सारी क्रांति बस शब्दों में रह जाऊँगा।

दुनिया बचाना है तो पहले, खुद को ज़हर से मुक्त करूँ,
जंग बाहर नहीं, ये भीतर है—मैं मरूँ या मैं पुनर्जन्म करूँ।