स्त्री का आलोक



स्त्री तुम कोमलता का सागर हो,
जहाँ प्रेम के मोती बिखरते हैं।
तुमसे ही सृष्टि की गाथा है,
तुमसे ही जीवन सँवरते हैं।

तुम पुष्प की मृदु सुगंध हो,
तुम रस की मधुशाला हो।
तुममें समर्पण की गहराई है,
और सम्मोहन की मधुर वाणी हो।

जब-जब अंधकार घेरता पुरुष को,
माया का मोह जकड़ता मन को।
तब-तब स्त्री बनती दीपक प्रज्वलित,
दिखाती राह उजालों की धरा को।

तुम प्रकृति की गूँज हो,
तुम जीवन की चेतना हो।
तुम शक्ति की देवी हो,
और ममता की सरिता हो।

तुमसे ही जगत प्रकाशित है,
तुमसे ही हर आधार है।
स्त्री, तुम्हारे बिना संसार अधूरा,
तुम्हीं जीवन का सार हो।

प्रिये तुम्हीं से मैं भी हूँ 
और ये संसार तुम्हीं से है।


मैं, ब्रह्मांड का अंश, ब्रह्मांड मुझमें

मैं, एक अणु, जो ब्रह्मांड में विचरता, ब्रह्मांड का अंश, जो मुझमें बसता। क्षितिज की गहराई में, तारे की चमक में, हर कण में, हर क्ष...