फल की चाह में तपस्या की थी बरसों तक,

त्याग तपस्या की राहों में गुजारी थी जिंदगी,
ख्वाबों की चादर ओढ़े चल रहा था मैं।

हर कदम पे कांटे थे, हर मोड़ पर मुश्किलें,
फिर भी हौंसले की रौशनी में जल रहा था मैं।

माना कि मंजिलें अब भी दूर हैं मुझसे,
पर न हार मानूंगा, ये वादा कर रहा था मैं।

फल की चाह में तपस्या की थी बरसों तक,
अब भी उम्मीदों के बाग में फल रहा था मैं।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...