वामपंथी और इस्लामिक विचारधाराओं के बीच एक विचित्र और जटिल संबंध देखा जाता है, जो समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डालता है। देखने में दोनों विचारधाराएं एक दूसरे के विरोधाभासी लगती हैं, लेकिन विभिन्न समयों और स्थितियों में इनके बीच गठजोड़ हुआ है। इस लेख में हम भारत और विश्व के संदर्भ में इस गठबंधन के पीछे के कारणों और इसके परिणामों पर विचार करेंगे।
वामपंथी विचारधारा और धर्म
वामपंथी या कम्युनिस्ट विचारधारा मूल रूप से धर्म विरोधी रही है। कार्ल मार्क्स ने धर्म को "अफ़ीम" की संज्ञा दी थी, जिसका मतलब था कि धर्म समाज को वास्तविकता से दूर करके उसे कमजोर करता है। इस आधार पर, कम्युनिस्ट विचारधारा ने सभी धर्मों को समाज में शोषण और अन्याय का स्रोत माना है।
इस्लाम और वामपंथ का गठबंधन
फिर भी, वामपंथी अक्सर इस्लाम को छोड़कर अन्य धर्मों का कड़ा विरोध करते दिखते हैं। यह केवल एक राजनीतिक रणनीति है, जहां वामपंथी और इस्लामी विचारधाराएं एक दूसरे के साथ सहयोग करती हैं ताकि वे लोकतंत्र और आधुनिक समाजों को चुनौती दे सकें। वामपंथी विचारक अपनी सत्ता और प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्लाम को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। दूसरी ओर, इस्लामी कट्टरपंथियों को वामपंथियों के ‘प्रगतिशील’ और ‘वैचारिक’ आवरण की आड़ मिल जाती है।
यह गठबंधन खासकर उन स्थानों में देखा जाता है जहां दोनों के विरोधी विचारधारा वाले समूह सक्रिय होते हैं। भारत में वामपंथी और इस्लामिक समूहों के बीच का संबंध इसका एक अच्छा उदाहरण है। वामपंथी ताकतें अपने हितों के लिए इस्लामी कट्टरपंथ का इस्तेमाल करती हैं और जब इस्लामिक समूह अपनी ताकत बढ़ा लेते हैं, तो वे वामपंथियों को किनारे कर देते हैं।
इतिहास में वामपंथ और इस्लाम का संघर्ष
इस्लाम और वामपंथी विचारधाराओं का गठबंधन तभी तक सफल होता है जब तक वे किसी तीसरे विरोधी विचारधारा के खिलाफ होते हैं। जैसे ही उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है, वे एक दूसरे का दमन शुरू कर देते हैं। इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं।
सोवियत संघ: सोवियत संघ में इस्लामिक समूहों का कड़ा दमन हुआ। वहां कम्युनिस्ट शासन ने धर्म को जनता के लिए हानिकारक बताया और इस्लाम को नियंत्रित करने की कोशिश की।
चीन: इसी तरह, चीन में भी इस्लाम पर कड़ी पाबंदियां हैं। वहां इस्लामिक समूहों को सरकार की विचारधारा के खिलाफ विद्रोह के रूप में देखा गया और उन्हें लगातार नियंत्रित किया जाता रहा है।
ईरान और इंडोनेशिया: ईरान और इंडोनेशिया जैसे देशों में वामपंथी और इस्लामी समूहों के बीच लगातार संघर्ष हुआ है। इन देशों में, जब इस्लामी कट्टरपंथ ने सत्ता हासिल की, तो वामपंथी विचारकों और नेताओं को मार डाला गया।
भारत का संदर्भ
भारत में भी वामपंथ और इस्लामिक विचारधाराओं का गठबंधन देखने को मिलता है, खासकर शैक्षिक संस्थानों, राजनीतिक मंचों, और कुछ मीडिया में। वामपंथी विचारधारा को प्रगतिशीलता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और इस्लामिक कट्टरपंथियों को इसका समर्थन मिल जाता है।
लेकिन यह गठबंधन केवल तब तक टिकता है जब तक कोई अन्य विचारधारा या सत्ता का विरोध करना होता है। जब इस्लामी कट्टरपंथियों का उद्देश्य पूरा हो जाता है, तब वे वामपंथियों को किनारे कर देते हैं। इस प्रकार, यह एक अस्थायी और स्वार्थी गठबंधन है, जिसका उद्देश्य समाज को अस्थिर करना और सत्ता हासिल करना है।
निष्कर्ष
वामपंथी और इस्लामी विचारधाराएं दोनों तानाशाही और अधिनायकवाद के प्रति झुकाव रखती हैं। दोनों का मकसद समाज को एक खास विचारधारा के तहत लाना है, जहां स्वतंत्रता, बहस, और विविधता के लिए कोई जगह नहीं होती। यह गठबंधन सिर्फ तब तक टिकता है जब तक उनके सामने एक सामान्य दुश्मन होता है। जब उनका उद्देश्य पूरा हो जाता है, तो वे एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं, जैसा कि हमने दुनिया के कई हिस्सों में देखा है।
भारत और विश्व के लिए यह आवश्यक है कि इस गठबंधन को समझा जाए और इसके नकारात्मक प्रभावों से बचने के उपाय किए जाएं, ताकि लोकतंत्र और आधुनिकता का संरक्षण किया जा सके।