एकाकी का संवाद



मैं था अकेला, सूनेपन का भार लिए,
हर चेहरा जैसे कोई उम्मीद लिए।
नीत्शे का वह वाक्य मन में गूँजा,
"अकेला व्यक्ति जल्दी हाथ बढ़ा देता है।"

हर राहगीर में मैंने साथी ढूंढ़ा,
हर मुस्कान में स्नेह का प्रतिबिंब खोजा।
पर जितना पास गया, उतना खोया,
जैसे बालू की मुट्ठी, हर रिश्ता बहा।

फिर समझा, यह भागमभाग व्यर्थ है,
संवाद का सृजन धीमा, पर अर्थ है।
संबंध उगते हैं समय की मिट्टी में,
जल्दी नहीं, धैर्य की लय में।

एक कॉफी हाउस को मैंने घर बनाया,
हर दिन वहीं, एक समय पर आया।
बारिस्ता ने मेरी पसंद जान ली,
बिना कहे ही कप मेज़ पर आ गई।

वही लोग, वही चेहरे, वही माहौल,
धीरे-धीरे अजनबी बन गए एक क़ोल।
नज़रें मिलीं, फिर मुस्कान बँटी,
फिर शब्दों ने भी अपनी जगह छनी।

रोज़ के छोटे-छोटे संवाद,
बने बड़े बंधन, जैसे साज पर राग।
कोई जब 8 बजे आता, मैं पहचानता,
जब 12 बजे का समय होता, मैं जानता।

सम्बंध कोई जादू नहीं, बीज है,
जो जमता है मिट्टी में धीरे-धीरे।
एक जगह, एक समय, एक प्रवाह,
जहाँ जुड़ते हैं मन, जहाँ टिकता है स्नेह का गवाह।

अब मैं समझता हूँ, भागना नहीं, ठहरना है,
हर दिन वहाँ होना, यह जीवन का गहना है।
कनेक्शन न बनता है, न खोजा जाता है,
यह तो बस रोज़ की उपस्थिति से आता है।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...