आज हम ऐसे दौर में हैं जहाँ सृजन की संभावनाएँ अनंत हैं,
फिर भी, काले सिनेमा और मीडिया में दिखती है एक चुप्पी—एक खालीपन।
वो गहराई, वो पेशेवर अंदाज़,
जो कभी धर्मयुग या साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे मंचों की पहचान थे, अब जैसे खो से गए हैं।
इतने सारे उभरते हुए रचनाकार,
हर एक के पास कहने को कुछ ख़ास।
वो जुनून, वो आवाज़, वो विचार,
जो नए युग के प्रेरणा स्तंभ बन सकते हैं, कला के सितारे।
तो क्यों नहीं कोई नया मंच,
जहाँ संस्कृति और कला का हो अद्भुत संगम?
जहाँ हर कहानी को मिले सही सम्मान,
और हर आवाज़ को मिले अपनी पहचान।
ज़रूरत है फिर से उस ऊर्जा को जगाने की,
उन कहानियों को सुनाने की,
जो गहराई में उतरती हैं,
जो विचारों को बदलती हैं।
हमारे पास साधन हैं, तकनीक है,
बस चाहिए वो जुनून,
जो इसे नई ऊँचाइयों तक ले जाए,
और हर रंग को उसकी असली पहचान दिलाए।
क्योंकि सिनेमा और साहित्य की यह धारा,
सिर्फ मनोरंजन नहीं, एक क्रांति का इशारा।