मैंने चुनी है एक नई राह


(एक कविता — अचेत पूंजीवाद से मुक्ति पर)

मैंने चुनी है एक नई राह,
ना सन्यासी बना हूँ, ना छोड़ा है दुनियावी चाह।
ना तप की तपिश में जला हूँ,
ना भागा हूँ पहाड़ों की शरण में, बस खुद से मिला हूँ।

ये मुक्ति है भीतर की —
जहाँ बाज़ार नहीं तय करता मेरी ज़रूरतों की सीमाएँ,
जहाँ ब्रांड नहीं परखते मेरे आत्म-सम्मान की ऊँचाइयाँ।
जहाँ “सेल” का शोर मेरे मन का मौन नहीं तोड़ता,
जहाँ “नई चीज़” पाने की होड़ अब मुझे नहीं मोड़ता।

मैं अब भी पहनता हूँ वस्त्र,
पर देखता हूँ कि वो किसके श्रम से बने हैं।
मैं अब भी खाता हूँ फल,
पर सोचता हूँ कि ज़मीन की इज़्ज़त उसमें कितनी जमी है।

मैंने देखा है —
कैसे अनजाने में मैं भी एक हिस्सा था उस चक्रव्यूह का,
जहाँ हर दिन बेचे जाते हैं सपने प्लास्टिक में लिपटे,
जहाँ संतोष भी अब पैकेजिंग पर निर्भर होता है।

अब मैं पूछता हूँ —
क्या सच में चाहिए ये नया फ़ोन,
या बस उस पुराने से मेरा ध्यान हटाया जा रहा है?
क्या वो सब्ज़ी, जो दूर देश से आई है,
सच में पोषण देती है, या बस दूरी का गुरुर?

मैंने चुनी है सजगता —
हर क्रय में, हर स्वाद में, हर चलन में।
मैंने ठुकराया है वो चमक,
जो आँखें चुरा ले जाती थी आत्मा से।

मैं भागा नहीं हूँ जीवन से,
मैं जुड़ा हूँ हर उस धड़कन से जो सच है।
मैंने छोड़ा है सिर्फ़ एक चीज़ —
वो अंधापन, जो पूंजीवाद ने चुपचाप पहना दिया था।

अब मैं जीता हूँ —
थोड़ा सादा, थोड़ा सच, थोड़ा सोच समझ के।
मैं अब भी लेता हूँ सामान,
पर पहले चुनता हूँ मूल्य, फिर वस्तु।

ये मेरी क्रांति है —
ना नारों से, ना हिंसा से,
बस हर रोज़ एक चुनाव से, एक बदलाव से।

मैंने चुनी है एक नई राह,
जहाँ उपभोग नहीं, चेतना होती है पहली चाह।