मुखौटों का अकाल



वो पल जब उसने अपनी आँखों का दीपक बुझा दिया,  
मेरी उंगलियों तक ठंडक का जहर उतर आया।  
भाई कहकर जिसने मेरे नाम की मिट्टी चाटी थी,  
आज उसी की ज़ुबान पर मेरे सपनों का कफ़न सजा है।  

उसकी हँसी के पीछे खनकता था वो खोखलापन,  
जैसे बरसात में गीले लकड़ी का दरकता स्वर।  
मैंने पूछा—"क्यों तोड़ी ये दीवार?" उसने कहा—  
"तुम्हारी नींद में ही गिर गई थी... मैंने सिर्फ़ ढहाया।"  

उसके इशारों में चिपके थे दस साल के झूठ के पत्ते,  
हर बात की जड़ में ज़हर की पौध उग आई।  
परिवार के आँगन में गड़े थे जो हड्डियों के चिराग़,  
आज उन्हीं की रोशनी में उसका चेहरा काला नज़र आया।  

देखा उसने मेरी चुप्पी को कमज़ोरी समझा,  
मेरी सहनशीलता के पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं।  
जब मैंने उसकी आँखों में झाँका—अपना अक्स ढूँढा,  
तो वहाँ बस एक खाली शीशा था... जिसमें उसने मुझे मिटा दिया।  

दूसरे भी किनारे खड़े हैं, हाथों में बालू की दीवारें,  
"हमें कुछ नहीं पता" कहते हुए आँखें चुरा लेते हैं।  
उसकी चालों के निशान मिटाते हुए, रेत पर पैर फेरते हुए,  
मेरे सवालों को हवा में उछालकर अनसुना कर देते हैं।  

वक़्त की धूल ने अब उजागर कर दिए हैं छुपे घाव,  
उसकी मासूमियत के पर्दे में लगी थी चिराड़ अब दिखी।  
रिश्तों की नाव को जानबूझकर चट्टान से टकराया गया,  
और सब समझते हैं—ये तो बस लहरों का खेल था।  

अंतिम साँस:
अब मैं जान गया—खून के रिश्ते भी रेत की नदी हैं,  
जिनमें डूबते हुए चेहरे बदल जाते हैं।  
जिसे मैंने अपना कहकर छाती से लगाया था,  
वही अब छुरे की नोंक पर मेरा इतिहास गिनता है...