मैं अपने शरीर की भाषा सुनना चाहता हूँ,
उसकी हर धड़कन, हर स्पंदन को समझना चाहता हूँ।
वह चुप नहीं रहता, बस मैं ही अनसुना कर देता हूँ,
उसके संकेतों को शोर में दबा देता हूँ।
जब थकान मुझे छूती है,
मैं उसे झटक कर आगे बढ़ जाता हूँ।
जब दर्द कोई कहानी कहता है,
मैं उसे दबाकर मुस्कुराता हूँ।
मेरा हृदय जब भार से भर जाता है,
मैं उसे तर्कों से शांत करने की कोशिश करता हूँ।
मेरी साँसें जब गहरी होना चाहती हैं,
मैं उन्हें भागदौड़ में उलझा देता हूँ।
पर शरीर मौन रहकर भी बोलता है,
हर तनाव, हर पीड़ा में कुछ कहता है।
मैं अब उसकी भाषा सीखना चाहता हूँ,
हर संकेत को सम्मान देना चाहता हूँ।
अब मैं उसकी थकान को विश्राम देना चाहता हूँ,
उसके दर्द को स्नेह से सहलाना चाहता हूँ।
अब मैं उसके साथ संघर्ष नहीं,
संवाद करना चाहता हूँ।