रेत पर महल बना रहे हो,
क्यों इतना इतराए जा रहे हो?
धर्म तुम्हारा यदि सच है,
तो धक्के से क्यों हिल जा रहे हो?
लोहे जैसा धर्म चाहिए,
जो चोट से और निखर जाए।
पर तुम तो बांसों के झुरमुट में,
अपना आसरा बनाए जा रहे हो।
उधार का है जो धर्म तुम्हारा,
क्यों उसे अपना माने जा रहे हो?
गुरुमंत्र की बासी बातों पर,
जीवन का महल खड़ा कर रहे हो।
क्यों नहीं खुद अनुभव करते,
सत्य को अपने भीतर धरते?
जो भी चोट तुम्हें लगे,
क्यों नहीं उसे समर्पण से सहते?
अदालत जाओ, फरियाद करो,
कह दो, "मुझे चोट लगी है।"
पर सोचो, क्यों इतनी कमजोर,
तुम्हारी आत्मा सजी है?
धर्म तुम्हारा अनुभव हो,
जो झंझाओं में भी अडिग रहे।
कोई लाख कोशिश कर ले,
पर तुम्हारा विश्वास स्थिर रहे।
रेत पर महल बनाने वाले,
क्यों ना चट्टानों पर काम करो?
सत्य का दीपक जलाओ भीतर,
अंधकार को परे हर बार करो।
किसी का फूंका मंत्र सुना,
और उसे अपना मान लिया।
सत्य की खोज अधूरी छोड़ी,
और झूठ को सत्य मान लिया।
क्यों ना खुद चलो भीतर,
सत्य का रत्न खोजो गहरे?
उधार के कंधों पर चलकर,
क्या मिलेगा सत्य तुम्हें सहरे?
धर्म तो खुद का अनुभव है,
जो कोई छीन ना पाए।
जो चोट से और निखर जाए,
जो समय के साथ गहराए।
तो छोड़ो ये बासी बातें,
जो दूसरों ने कान में डालीं।
अपना सत्य खोजो भीतर,
जहां ना कोई बात फिसलने वाली।
रेत पर महल खड़े हो तुम,
पर जल की बाढ़ आने वाली है।
चट्टानों पर जो टिक गए,
बस वही कहानी कहने वाली है।