निश्छल प्रेम की परिभाषा


जब प्रेम से हो हट जाएँ,
आसक्ति और आवेग,
हो प्रेम शुद्ध, निर्दोष, निराकार,
हो बस एक दान, न कोई मांग।

प्रेम हो सम्राट, भिक्षुक नहीं,
जब मिले खुशी किसी के स्वीकार से,
प्रेम बने शाश्वत, शाश्वत सत्य,
करे केवल देना, ना लेना कभी।

उस निर्मल प्रेम की महिमा हो,
जो हो सागर के समान विशाल,
जो बहे निश्छल, निर्बाध,
हो प्रेम की भाषा, अनमोल और निर्मल।

हर दिल में जब प्रेम हो ऐसा,
तो जग हो स्वर्ग समान,
मिट जाएं सारी द्वेष-भावनाएं,
प्रेम की हो बस एक ही पहचान।

श्वासों के बीच का मौन

श्वासों के बीच जो मौन है, वहीं छिपा ब्रह्माण्ड का गान है। सांसों के भीतर, शून्य में, आत्मा को मिलता ज्ञान है। अनाहत ध्वनि, जो सुनता है मन, व...