निश्छल प्रेम की परिभाषा


जब प्रेम से हो हट जाएँ,
आसक्ति और आवेग,
हो प्रेम शुद्ध, निर्दोष, निराकार,
हो बस एक दान, न कोई मांग।

प्रेम हो सम्राट, भिक्षुक नहीं,
जब मिले खुशी किसी के स्वीकार से,
प्रेम बने शाश्वत, शाश्वत सत्य,
करे केवल देना, ना लेना कभी।

उस निर्मल प्रेम की महिमा हो,
जो हो सागर के समान विशाल,
जो बहे निश्छल, निर्बाध,
हो प्रेम की भाषा, अनमोल और निर्मल।

हर दिल में जब प्रेम हो ऐसा,
तो जग हो स्वर्ग समान,
मिट जाएं सारी द्वेष-भावनाएं,
प्रेम की हो बस एक ही पहचान।

आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...