दिल्ली की धूम-धाम में,

ऊँची पहाड़ों की चोटी से,
निकला एक युवा वीराना हवाओं के सहारे।
छोड़ आया घर की छाँव, छोड़ गया अपने परिवार का संग,
शहरों की गलियों में, उसने अपना नाम बुना हर रंग।

दिल्ली की धूम-धाम में, उसने अपनी दास्ताँ लिखी,
जीवन की हर कठिनाई से, वह ने अपनी मंजिल को सलाखों में छिपी।
शहर की भीड़ में, खो गया वह अकेला,
पर अपनी ताक़त से, जीता उसने हर अजनबी का मेला।

जीने का नया अद्भुत अनुभव, सिखता गया वह हर पल,
कठिनाइयों में भी, ढूँढता गया अपना लक्ष्य का पता।
पहाड़ के पीछे से, शहरों की दुनिया में,
वह खोजता रहा, अपने सपनों की वही सीमा।

धरती की गोद में, बड़े-बड़े शहरों की खोज,
उसने किया अपना नाम, बनाया अपनी ही कोशिशों का मोल।
पहाड़ के ऊपर से, शहरों में आकर,
वह जीता गया, खुद को पहचानकर।

घर के दीवारों के बाहर,

घर के दीवारों के बाहर,
पहाड़ों की गोद में बसा संघर्ष वीर।
उसने छोड़ दिया अपने निवास को,
नए सपनों की खोज में, चला उसने दूर दरिया पार।

सड़कों की गर्मी, शहरों की भीड़,
उसने स्वप्नों को अपने दिल में बसा लिया।
जीवन की कठिनाइयों से लड़ते हुए,
नई राहों को अपनाते हुए, उसने खुद को पाया।

दिल्ली की सड़कों पर चलते हुए,
सपनों के पंखों को फैलाते हुए, उसने अपना नाम बनाया।
सीखने का जज्बा, करने की चाह,
उसके हर कदम से नई कहानियाँ बुनी जाती गई।

पहाड़ की चुपचापी रातों में,
उसने अपने सपनों को साकार किया।
शहर की रौशनी में, उसकी खुशियाँ खिली,
नए सपनों की धुंध से, उसने अपने दिल को मिला।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...