Thursday 11 April 2013

kitni girhi kholi hai maine kitne abhi bakhi hai... Gulzar poem


कितनी गिरहे खोली है मैने, कितनी अभी बाकी है

पांव में पायल, बाहों में कंगन

गले में हसली

कमर बंद, छल्ले और बिछूये

नाक कान छिदवाये गये

जैवर जैवर कहते कहते रीत रीवाज की रस्सीयों से जकड़ी गई

कितनी तरह से में पकड़ी गई



अब छीलने लगे हैं हाथ पांव 

और कितनी खरासे उबरी हैं

कितनी गिरहे खोली है मैने

कितनी रस्सीयां उतरी है

अंग अंग मेरा रूप रंग

मेरे नख्स नैन

मेरे बोल

मेरे आवाज में कोयल का तारीफ हुई

मेरी जुल्फ सांप मेरी जुल्फ रात

जुल्फों मे घटा मेरे लब गुलाब

आंखे शराब

गजले और नगमे कहते कहते

मे हुस्न और इश्क के अफसाने मे जकड़ी गई

उफ्फ कितनी तरह में पकड़ी गई

मै पूछूं जरा

आंखों मे शराब दिखी सबको

आकाश नही देखा कोई

सावन भादों दिखे मगर

क्या दर्द नही देखा कोई


पां की झिल्ली सी चादर मे

बट छिल्ले गये उरयानी के

तागा तागा कर पोशाके उतारी गई

मेरे जिस्म पर फन की मस्क हुई

और आर्ट कला कहते कहते

संग मरमर पे जकडी गई

बतलाये कोई.... बताये कोई

कितनी गिरहें खोली है मैने

कितनी अब बाकी है

दीप जले तो जीवन खिले

अँधेरे में जब उम्मीदें मर जाएं, दुखों का पहाड़ जब मन को दबाए, तब एक दीप जले, जीवन में उजाला लाए, आशा की किरण जगमगाए। दीप जले तो जीवन खिले, खु...