मैं खोज रहा था अर्थ,
नग्नता के उस मौन गर्जन का
जो भीतर कपड़ों के पीछे
कभी चुपचाप धड़कता है।
मैंने समझा था नग्न होना
शरीर का निर्वस्त्र होना भर है,
मगर जब आत्मा को टटोला
तो जाना,
विचार भी वस्त्र होते हैं,
और भावनाएँ भी परदे।
मैं जब पहली बार
दर्पण के सामने नंगा खड़ा हुआ,
तो वहाँ शरीर नहीं—
शर्म खड़ी थी,
लज्जा की झुकी हुई गर्दन,
और समाज की तिरछी दृष्टि।
मैंने पूछा अपने आप से—
क्या यह मैं हूँ?
या वह हूँ जिसे दुनिया ने ढक रखा है,
मर्यादाओं की चादर से,
संस्कारों की तहों में।
मैंने देखा भैरवी को—
वह भी नंगी नहीं थी,
उसने भी ओढ़ रखी थी
सहजता की एक मजबूत चादर,
उत्तेजना के सामने
स्थिर दृष्टि से बैठी हुई।
मैंने सीखा तंत्र से—
नग्नता केवल देखना नहीं है,
बल्कि देख कर भी
कुछ न होना है।
ना आँखों की बेचैनी,
ना देह की हलचल।
मैंने तप किया अग्नि के सामने,
ना जलने के लिए
बल्कि तपने के लिए,
ताकि भीतर के धुएँ
मुझे छू न सकें,
और बाहर की लपटें
मुझे झुलसा न सकें।
मैंने जाना,
नग्नता एक अवस्था है—
जब स्पर्श भी मौन हो जाए,
और दृष्टि भी निर्विकार।
मैंने देखा नग्न स्त्री को—
मगर आँखों में था
हया का जल,
तो वह भी वस्त्रों से ढकी हुई लगी।
मैंने देखा पूरी तरह ढकी स्त्री को—
और जब लज्जा की ओट नहीं रही,
तो भीतर कुछ जागा
जो वस्त्रों को फाड़ने पर आमादा था।
मैंने समझा तब,
बलात्कार कपड़ों से नहीं,
नजरों से शुरू होता है।
मैं नग्न नहीं हुआ आज तक,
क्योंकि भीतर कहीं
छिपा रहा एक डर,
कि अगर मैं सच्चा हो गया,
तो ये दुनिया झूठी लगने लगेगी।
मैंने बहुत कुछ ओढ़ा है—
धर्म, मर्यादा, संस्कार,
यहाँ तक कि प्रेम भी,
बस इसलिए
कि खुद को किसी तरह
ढका रह सकूं।
मैं जानता हूँ
तंत्र अंतिम पड़ाव है—
मगर लोग वहीं से शुरू करते हैं,
जहाँ पहुँचने में उम्र लगती है।
मैं नग्नता नहीं चाहता,
मैं उस अवस्था को चाहता हूँ
जहाँ कपड़े हों या न हों,
मैं वैसा ही रहूँ
जैसा हूँ —
सहज, स्थिर, और शुद्ध।
क्योंकि अंत में,
जो नग्न होता है बाहर से
वह आकर्षक हो सकता है,
मगर जो नग्न होता है भीतर से—
वही मुक्त होता है।