सांस का रंग



क्या रंग है तुम्हारी सांस का?
आँखें मूंदो और सोचो।
शायद वह श्वेत हो,
जैसे हिमालय की बर्फ।
या हरा,
जैसे घास का मैदान।
शायद नीला,
जैसे आकाश का अंतहीन विस्तार।
या लाल,
जैसे जीवन की धड़कन।

यह सांस कहाँ से आती है?
किस स्त्रोत से,
किस गहराई से उठती है?
क्या वह धरती के गर्भ से,
या आकाश के आँगन से उतरती है?
क्या यह ईश्वर की छाया है,
या प्रकृति का वरदान?

और यह कहाँ जाती है?
क्या खो जाती है
क्षितिज के पार?
या समा जाती है
अनंत के आँचल में?
क्या इसका कोई अंत है,
या यह चक्र बनाकर लौटती है?

हर सांस के रंग में छिपा है
एक रहस्य, एक सन्देश।
एक प्रश्न जो पूछता है:
क्या तुमने अपने भीतर
उस रंग को देखा है?


अंतराल



जो भी है हमारे दिन में, वह हम बनाते हैं,
कभी काम, कभी आराम, कभी शांति से बिताते हैं।
लेकिन असली खेल होता है, बीच के खाली पलों में,
वो वही अंतराल हैं, जो काम को बनाते हैं नये रंगों में।

जब हम चलते हैं एक काम से दूसरे तक,
उस छोटी सी दूरी को बढ़ाना है हमें, जैसे नया तरीका हो पक।
चाहे हो कुछ भी, बीच का वक्त हो सबसे खास,
यह वह जगह है जहां पर उत्पादकता को मिलता है बास।

कभी-कभी दिमाग को आराम दो, फिर रचनात्मकता को पाओ,
वो छोटे-छोटे पल, जब कुछ न करें, यही सबसे ज़रूरी है जानो।
बीच का अंतराल, इसे मैक्सिमाइज करना,
यही है असली सफलता, और यही हमारा तरीका बनाना।

कभी भागे, कभी रुके, सोचें, खुद को समझें,
इन अंतरालों से ही हम असल में ऊंचाईयों तक पहुंचें।
काम से आराम तक, आराम से फिर काम,
इस संतुलन में ही है असली उत्पादकता का पैमाना।


आधी-अधूरी आरज़ू

मैं दिखती हूँ, तू देखता है, तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है। मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है, तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है। मै...