"अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी॥"
(भगवद गीता 12.13)
भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने उस व्यक्ति का वर्णन किया है जो ईश्वर को सबसे प्रिय होता है। यह व्यक्ति वह है जो किसी भी प्राणी से शत्रुता नहीं रखता और सभी के प्रति अहिंसा का पालन करता है। यह मार्ग न केवल आध्यात्मिक उत्थान का है, बल्कि मानवता के प्रति एक उच्च दृष्टिकोण को भी प्रतिबिंबित करता है।
अहिंसा का महत्व
"अहिंसा परमोधर्मः" – महाभारत
अहिंसा भारतीय संस्कृति और धर्म का मूल आधार है। यह केवल शारीरिक हिंसा से बचने का सिद्धांत नहीं है, बल्कि विचार, वाणी और कर्म में भी किसी को कष्ट न पहुंचाने का आदर्श है। गीता में अहिंसा को शांति और सत्य के मार्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है।
शत्रुता का अंत: आत्मा की शुद्धि
गीता के इस उपदेश में यह भी बताया गया है कि शत्रुता की भावना को त्यागना आत्मा की शुद्धि का मार्ग है। शत्रुता न केवल दूसरों को बल्कि हमें भी भीतर से जला देती है। जब हम अपने भीतर से क्रोध, द्वेष और ईर्ष्या को समाप्त करते हैं, तब हम ईश्वर के निकट होते हैं।
"यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥"
(भगवद गीता 12.17)
यह श्लोक बताता है कि जो व्यक्ति न तो सुख में अति प्रसन्न होता है और न दुख में व्याकुल, वह ईश्वर को प्रिय होता है। इसका सीधा संबंध अहिंसा और शत्रुता से है।
अहिंसा का आध्यात्मिक प्रभाव
अहिंसा का पालन करने वाला व्यक्ति न केवल व्यक्तिगत जीवन में शांति पाता है, बल्कि समाज में भी शांति का प्रसार करता है।
"विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥"
(भगवद गीता 5.18)
यह श्लोक समदृष्टि और करुणा का महत्व बताता है। जो व्यक्ति सभी प्राणियों में ईश्वर का अंश देखता है, वह स्वभाव से अहिंसक और शत्रुता रहित होता है।
व्यावहारिक जीवन में शत्रुता और अहिंसा
आधुनिक समय में, शत्रुता और द्वेष केवल व्यक्तिगत रिश्तों तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज, राजनीति और धर्म के स्तर पर भी देखी जा सकती है। ऐसे में गीता का यह उपदेश अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
जब हम दूसरों के प्रति करुणा और दया का व्यवहार करते हैं, तब न केवल हमारे व्यक्तिगत संबंध सुधरते हैं, बल्कि हम समाज में सकारात्मकता का संचार करते हैं।
भगवद गीता के इस उपदेश में शत्रुता और अहिंसा का मार्ग न केवल आध्यात्मिक उत्थान का साधन है, बल्कि यह समाज में एक आदर्श जीवन का भी प्रतीक है।
"सर्वभूतहिते रतः।"
(भगवद गीता 5.25)
यह श्लोक यह बताता है कि जो व्यक्ति सभी प्राणियों के हित में रत रहता है, वही सच्चे अर्थों में ईश्वर का प्रिय है।
इसलिए, शत्रुता और हिंसा को त्याग कर हमें दया, करुणा और प्रेम का मार्ग अपनाना चाहिए, क्योंकि यही वह मार्ग है जो हमें ईश्वर के निकट ले जाता है।