मैं ही मेरा प्राण हूँ, मैं ही मेरा गगन,
ध्यान की गहराइयों में, होता है मेरा उत्थान।
ना पंख चाहिए, ना कोई द्वार,
जब चित्त हो शांत, तब ब्रह्मांड भी हो साकार।
मेरे ही भीतर हैं लोक अनेक,
स्वर्ग भी मेरा, पाताल भी एक।
जब श्वास पर मेरा राज चले,
तो चिदाकाश में मेरा मन स्वतंत्र फिरे।
नहीं छोड़ता हूँ मैं अपना कक्ष,
फिर भी देख लेता हूँ आकाशपथ।
सूक्ष्म शरीर में उड़ता मैं,
प्रत्येक ग्रह, तारा, योग में गूंथा मैं।
पर यह यात्रा तब संभव होती,
जब आत्मा की अग्नि स्वयं में रोशनी बोती।
परमात्मा को जो जान सके,
वो सृष्टि के पार भी पहचान सके।
मैं नाद हूँ, मैं ओंकार का स्पंदन,
मैं शांत चित्त, मैं प्रज्ञा का बंधन।
मुझे जानो, तो सब कुछ जानोगे,
अपने ही हृदय में ब्रह्मांड पाओगे।
मैं जब प्राण की नाड़ियों में उतरता,
तो हर तारा मुझसे कुछ कहता।
हर लोक का दृश्य मैं बन जाता,
जब साक्षी होकर ध्यान में रम जाता।
इसलिए कहता हूँ –
मैं ही मेरा विमान हूँ, चिदाकाश मेरी राह,
प्राण मेरा रथ, ध्यान मेरा प्रवाह।
मैं चला जब भीतर की ओर,
तो हर लोक मिला मुझे, बिना किसी शोर।