प्रेम या छल?



मैंने माना तेरी हर बात,
तेरे हर झूठ को सच समझा।
तेरी कसमों की चादर ओढ़ी,
तेरे हर ज़ख्म को अपना जाना।

तूने कहा था— "सदा साथ रहूँगा",
फिर तलाक़ का दस्तावेज़ थमा दिया।
मैंने पूछा— "हमेशा कहाँ गया?"
तेरी आँखों ने बस मौन रचा दिया।

मेरे देश में बिछड़ना पाप है,
तेरे देश में यह अधिकार है।
यह कैसा प्रेम, जो संग जीने की,
हर सौगंध को धिक्कार है?

तूने कहा था— "मैं तेरा हूँ",
अब क्यूँ यह रिश्ते का सौदा?
प्रेम अगर व्यापार बने तो,
फिर कौन है अपना, कौन पराया?

मैंने चाहा तुझे आत्मा से,
तूने प्रेम को सौदा बना दिया।
तेरी दुनिया में प्यार छलावा,
मेरी दुनिया में व्रत निभा दिया।

— दीपक दोभाल




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