काग़ज़ का जादू



काग़ज़ के टुकड़े, स्याही का खेल,
न सोने के, न चाँदी के ढेल।
पर दुनिया इन पर मरती है,
रोटियाँ तक इनसे चलती हैं!

बाज़ार में जो भी चाहो, ले लो,
बस जेब में कुछ नोट भर लो।
साबुन, साड़ी, समोसे, समंदर,
सब बिकते हैं, बस काग़ज़ सँभालो अंदर!

अजीब तमाशा, अजब है खेल,
गरीब तरसें, अमीर ठेल!
कुछ नहीं तो बैंक में देखो,
काग़ज़ ही काग़ज़, पर पैसा बोले!

और मज़ा तो देखो प्यारे,
चोरी भी हो तो नोट ही मारे!
सेब नहीं, दुकान नहीं,
नोट उड़ा लो, मियाँ बड़े महान सही!

सोचो ज़रा, क्या पागलपन!
काग़ज़ के पीछे इतना हवन?
जो असली चीज़ चाहिए,
वो नहीं, हमें तो बस नोट चाहिए!

— दीपक दोभाल



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