प्रेम का नया रूप


मैंने प्रेम किया था,
बिना किसी डर के,
बिना किसी संदेह के।
मैंने अपना हृदय सौंप दिया था,
जैसे कोई नदी सागर में मिल जाती है,
बिना यह सोचे कि लौट पाएगी या नहीं।

पर समय ने मुझे सिखाया,
हर सागर गहरा नहीं होता,
हर किनारा अपना नहीं होता।
मैं टूटा, बिखरा,
और सोचा कि शायद अब प्रेम मेरे लिए नहीं।

पर अब मैं समझता हूँ—
प्रेम खोया नहीं, बस बदल गया।
अब मैं अपनी कोमलता को बचाता हूँ,
हर किसी के हाथों में नहीं रखता।
अब मैं अपने हृदय को उसी को देता हूँ,
जो उसे संभालने का हकदार हो।

मैंने मासूमियत खोई है,
पर समझदारी पाई है।
अब मैं फिर प्रेम करूंगा,
पर इस बार, अधिक बुद्धिमानी से।


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