मैं याद करता हूँ वो दिन,
जब प्रेम बस प्रेम था—
न कोई भय, न कोई संदेह।
मैं बहता था उस धारा में,
पूरी तरह, बिना किनारे की चिंता किए।
पर फिर, दिल टूटा...
और उसके साथ, मेरा वह मासूम हिस्सा भी।
अब मैं जानता हूँ कि प्रेम सुंदर है,
पर साथ ही, यह खो देने का भय भी लाता है।
अब मैं उतना कोमल नहीं रहा,
वो निस्वार्थ समर्पण कहीं पीछे छूट गया।
अब मैं सोचता हूँ, रुकता हूँ,
हर कदम पर एक दीवार खड़ी कर देता हूँ।
काश, मैं फिर से उतना ही निर्दोष हो पाता,
फिर से उस प्रेम में डूब जाता,
बिना इस डर के कि मुझे बचना होगा,
बिना इस डर के कि फिर से टूटना होगा।
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