एक कहानी, कव्वे की जबानी


                          एक कहानी, कव्वे की जबानी

एक दिन एक कव्वे के बच्चे ने कहा की हमने लगभग हर चौपाय जीव का मांस खाया है. मगर आजतक दो पैर पर चलने वाले जीव का मांस नहीं खाया है. पापा कैसा होता है इंसानों का मांस पापा कव्वे ने कहा मैंने जीवन में तीन बार खाया है, बहुत स्वादिष्ट होता है. कव्वे के बच्चे ने कहा मुझे भी खाना है... कव्वे ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा चलो खिला देता हूँ. बस मैं जैसा कह रहा हूँ वैसे ही करना... मैंने ये तरीका अपने पुरखों से सीखा है. कव्वे ने अपने बेटे को एक जगह रुकने को कहा और थोड़ी देर बाद मांस का दो टुकड़ा उठा लाया. कव्वे के बच्चे ने खाया तो कहा की ये तो सूअर के मांस जैसा लग रहा है. पापा ने कहा अरे ये खाने के लिए नहीं है, इस से ढेर सारा मांस बनाया जा सकता है. जैसे दही जमाने के लिए थोड़ा सा दही दूध में डाल कर छोड़ दिया जाता है वैसे ही इसे छोड़ कर आना है. बस देखना कल तक कितना स्वादिष्ट मांस मिलेगा, वो भी मनुष्य का. बच्चे को बात समझ में नहीं आई मगर वो पापा का जादू देखने के लिए उत्सुक था. पापा ने उन दो मांस के टुकड़ों में से एक टुकड़ा एक मंदिर में और दूसरा पास की एक मस्जिद में टपका दिया. तबतक शाम हो चली थी, पापा ने कहा अब कल सुबह तक हम सभी को ढेर सारा दुपाया जानवरों का मांस मिलने वाला है. सुबह सवेरे पापा और बच्चे ने देखा तो सचमुच गली गली में मनुष्यों की कटी और जली लाशें बिखरी पड़ीं थी. हर तफ़र सन्नाटा था. पुलिस सड़कों पर घूम रही थी. जमालपुर में कर्फ्यू लगा हुआ था. आज बच्चे ने पापा कव्वे से दुपाया जानवर का शिकार करना सीख लिया था. बच्चे कव्वे ने पूछा अगर दुपाया मनुष्य हमारी चालाकी समझ गया तो ये तरीका बेकार हो जायेगा. पापा कव्वे ने कहा सदियाँ गुज़र गईं मगर आजतक दुपाया जानवर हमारे इस जाल में फंसता ही आया है. सूअर या बैल के मांस का एक टुकड़ा, हजारों दुपाया जानवरों को पागल कर देता है, वो एक दूसरे को मारने लग जाते हैं और हम आराम से उन्हें खाते हैं. मुझे नहीं लगता कभी उसे इंतनी अक़ल आने वाली है. कव्वे के बेटे ने कहा क्या कभी किसी ने इन्हे समझाने की कोशिश नहीं की कव्वे ने कहा एक बार एक बागी कव्वे ने इन्हे समझाने की कोशिश की थी मनुष्यों ने उसे साम्प्रदायिक कह के मार दिया..





नारी



घर से बाहर नही जा सकती है नारी

पुरूषों का ही ये अधिकार है

घर पर लाकर बसा दी जाती है नारी

नही फांद सकती वो चार दिवारी


जो फांदे वो तो देनी पड़ती है उसे अग्नी परीक्षा

इस अग्नी की ज्वाला में कब से जल रही है नारी

केवल वो देह ही नहीं, उसमे प्राण भी है

केवल भोग का सामान ही नहीं,

उसमें स्वाभिमान भी है


पुरुष अगर कल, तो नारी आज है,

नारी से ही जुड़े देश और समाज है

नारी ही बेटी है बहन है नारी ही बीवी और मां है

नारी ही समर्पणसेवा और त्याग है


फिर क्यों सहती  घुट-घुट के अपमान ये नारी,

आंखो को सेकने के लिए दिवार पर टंगी है बेचारी

हर ओर दिखती इसकी बेबसी और लाचारी

क्यों कदम-कदम पर हो जाती कुर्बान है नारी

kitni girhi kholi hai maine kitne abhi bakhi hai... Gulzar poem


कितनी गिरहे खोली है मैने, कितनी अभी बाकी है

पांव में पायल, बाहों में कंगन

गले में हसली

कमर बंद, छल्ले और बिछूये

नाक कान छिदवाये गये

जैवर जैवर कहते कहते रीत रीवाज की रस्सीयों से जकड़ी गई

कितनी तरह से में पकड़ी गई



अब छीलने लगे हैं हाथ पांव 

और कितनी खरासे उबरी हैं

कितनी गिरहे खोली है मैने

कितनी रस्सीयां उतरी है

अंग अंग मेरा रूप रंग

मेरे नख्स नैन

मेरे बोल

मेरे आवाज में कोयल का तारीफ हुई

मेरी जुल्फ सांप मेरी जुल्फ रात

जुल्फों मे घटा मेरे लब गुलाब

आंखे शराब

गजले और नगमे कहते कहते

मे हुस्न और इश्क के अफसाने मे जकड़ी गई

उफ्फ कितनी तरह में पकड़ी गई

मै पूछूं जरा

आंखों मे शराब दिखी सबको

आकाश नही देखा कोई

सावन भादों दिखे मगर

क्या दर्द नही देखा कोई


पां की झिल्ली सी चादर मे

बट छिल्ले गये उरयानी के

तागा तागा कर पोशाके उतारी गई

मेरे जिस्म पर फन की मस्क हुई

और आर्ट कला कहते कहते

संग मरमर पे जकडी गई

बतलाये कोई.... बताये कोई

कितनी गिरहें खोली है मैने

कितनी अब बाकी है

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...