कहाँ है वो सच्ची माफी,

कभी कभी, मैं देखता हूं उन चेहरों को,
जो एक दिन मुझे तोड़कर, दूसरे दिन मुस्काते हैं।
वो कहते हैं, “कुछ नहीं हुआ”, जैसे कुछ बदला ही नहीं,
पर कल का ज़ख्म, दिल में गहरा जाता है कहीं।

कल जो तूने किया, वह क्यों भूल जाते हो,
क्या वो दर्द मेरे दिल से मिट जाते हो?
जैसे कुछ हुआ ही नहीं, जैसे कोई कसूर नहीं,
क्या सच में कभी उस दर्द को महसूस नहीं?

क्या कभी उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है?
हमेशा वही कठोरता, वही चुप्पी का चुपके से खेल,
क्या उनका दिल कभी नहीं समझता यह मेल?

कभी कभी मुझे लगता है, क्या यही सच है जीवन का,
जहाँ ग़लतियाँ छुपाई जाती हैं, और सच्चाई रहती है सन्नाटा?
कहाँ है वो सच्ची माफी, वो दिल से निकली भावना,
जो सच्चे प्यार और सम्मान से जुड़ी हो, बिना किसी बहाना?

लेकिन अब मैं जानता हूं, हर ग़लती को स्वीकार करना चाहिए,
मुझे खुद से समझौता नहीं करना चाहिए।
जो मुझे दुख पहुंचाए, मैं उनसे दूरी बनाता हूं,
क्योंकि माफी बिना समझे, कोई सच्चाई नहीं पाता हूं।


मुझे माफ़ करो

कभी कभी, माफ़ी का शब्द आता है,
पर भीतर से वह खाली सा दिखता है।
ना कोई पहचान, ना कोई एहसास,
बस एक ढ़कोसला, झूठी विनम्रता का प्रयास।

मुझे भी कभी लगता था, यह शब्द सही हैं,
पर धीरे-धीरे समझ आया, ये झूठे हैं।
जब माफी बिना समझे, बिना स्वीकारे,
तो वह नफरत, वही दर्द फिर से दहराए।

वे कहते हैं, "मुझे माफ़ करो", पर क्या उन्हें पता है,
किसी के दिल को कितनी चोट दी है उन्होंने वहां।
इन्हें लगता है, माफी से सब कुछ हो जाएगा ठीक,
पर सच्चाई यही है, यह एक छल है बेक़ाम।

जो सच्चे हैं, जो दिल से माफ़ी मांगते हैं,
वे पहले अपना ग़लत किया मानते हैं।
वे कहते हैं, "मैंने यह गलत किया",
और फिर उस गलती को सुधारने का रास्ता दिखाते हैं।

मगर जो खाली माफ़ी से बचने की कोशिश करते हैं,
वे बस खुद को बचाने में लगे रहते हैं।
उनका माफ़ी का शब्द, एक दांव होता है,
जो सामने वाले को भ्रमित करने का खेल होता है।

मुझे अब पता चल चुका है, इन झूठी माफ़ियों को पहचानो,
क्योंकि ये सिर्फ एक खेल होते हैं, जो तुमसे क़ीमत चुकवाते हैं।
सच्ची माफी, हर दिल से आती है,
जो ग़लती से सीखा है, वही उसे सही बनाती है।

अब मैं जानता हूं, जो मुझे माफ़ी कहें,
वह पहले अपनी गलती को समझे और माने।
तभी वह माफी सही होती है, दिल से निकलती है,
वरना वह सिर्फ एक ढ़कोसला बनकर रह जाती है।


प्रेम की प्रतीक्षा



जब दिल की आवाज़ बनूँ मैं,
तेरे अहसास में समाऊँ मैं।
मेरा चेहरा तेरे ख्वाबों में हो,
और तू मेरे खयालों में खो जाए।

प्रेम तो हर कोई कर लेता है,
पर इंतज़ार और वफ़ा की राह कठिन है।
यह एक साधना है, त्याग का प्रतीक,
जो हर दिल का हौसला नहीं।

सच्चे प्रेम का अर्थ समझना है,
हर दर्द को हँसकर सहना है।
जो इस राह पर चल सके,
वही प्रेम में अमर हो सके।


प्रेम का प्रतीक


जब ह्रदय की पुकार सुनाई दे,
तेरे रूप का दर्शन हो सजीव।
मन के स्पंदन में तुम हो समाहित,
प्रेम का यह अनुभव अति सजीव।

मोहब्बत तो हर कोई कर लेता है,
पर प्रतीक्षा और वफा, तपस्या का मार्ग है।
यह साधना है आत्मा की, गहन समर्पण से जुड़ा,
जो हर किसी के वश की बात नहीं।

संयम और श्रद्धा का यह पथ,
जहाँ प्रेम की अग्नि से तपना होता है।
जो सह सके इस अग्निपथ को,
वही सच्चे प्रेम का अधिकारी होता है।

इस प्रेम यात्रा में साधक बन,
हर बाधा को सहजता से सहना होता है।
प्रेम की इस पवित्र साधना में,
हर मनुष्य का ह्रदय स्थिर नहीं रहता।


काम का वास्तविक उद्देश्य: चेतना की अभिव्यक्ति और हृदय से जीवन का उत्सव


आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में अक्सर हम अपने काम को किसी बॉस, पद, या पैसे से जोड़कर देखने लगते हैं। हमारे समाज में काम की सफलता को अक्सर इन बाहरी प्रतीकों से मापा जाता है। लेकिन क्या सचमुच यही जीवन का उद्देश्य है? क्या हम अपनी असली खुशी, संतोष और आत्म-संतुष्टि को इन बाहरी चीजों से जोड़कर पा सकते हैं?

इस लेख में हम एक नई दृष्टि से काम को समझने का प्रयास करेंगे। जब हम काम को किसी बॉस या पैसे के लिए नहीं बल्कि अपनी चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में करने लगते हैं, तो यह न केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन को बदल देता है, बल्कि जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण भी बदल देता है।

हृदय से काम करने का अर्थ

हृदय से काम करना केवल एक शब्द नहीं, बल्कि एक गहरी भावना है। इसका मतलब है कि हमारे काम का हर पहलू हमारे अंदर की सच्चाई और प्रेम से प्रेरित हो। हृदय के स्थान से काम करने का अर्थ है कि हम वह करें जिससे हमें वास्तविक खुशी मिले, न कि वह जो समाज हमें बताता है कि हमें करना चाहिए। यह एक ऐसी स्थिति है जहां काम एक बोझ नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव बन जाता है।

जब हम हृदय से काम करते हैं, तो हम अपनी हर गतिविधि में आनंद खोजने लगते हैं। हर कार्य एक अवसर बन जाता है खुद को व्यक्त करने का, अपनी रचनात्मकता को उभारने का और इस जीवन का खुले दिल से स्वागत करने का।

चेतना की अभिव्यक्ति

हर इंसान की चेतना अद्वितीय होती है, और हर व्यक्ति के पास अपनी पहचान और उद्देश्य होता है। जब हम काम को अपनी चेतना की अभिव्यक्ति मानते हैं, तो यह न केवल हमारी क्षमताओं का विस्तार करता है बल्कि हमें एक गहरा आत्म-समर्पण भी सिखाता है। इस अवस्था में हम बाहरी उपलब्धियों की बजाय अपने आंतरिक उद्देश्य और आत्मिक विकास पर ध्यान देने लगते हैं।

यह अभिव्यक्ति अपने आप में एक आध्यात्मिक यात्रा बन जाती है, जहाँ हम हर छोटे-बड़े कार्य को एक साधना की तरह करते हैं। यह अवस्था हमें सिखाती है कि वास्तविक संतोष और प्रचुरता तब मिलती है, जब हम अपने कार्य को आत्मा की आवाज़ मानकर करते हैं, न कि बाहरी मान्यता की लालसा में।

प्रचुरता का दावा

जब हम हृदय से और चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में काम करते हैं, तो प्रचुरता स्वतः ही हमारे जीवन में आती है। यह प्रचुरता केवल धन या भौतिक चीजों तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह उस शांति, संतोष और आत्मिक सम्पन्नता में भी प्रकट होती है जो हमें भीतर से संपूर्ण बनाती है। हम महसूस करते हैं कि हमें किसी चीज़ की कमी नहीं है, और हम अपने आप में पूर्ण हैं।

काम में यह दृष्टिकोण अपनाने से हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारे जीवन में जो भी आएगा, वह हमें प्रचुरता की दिशा में ही ले जाएगा। यह रास्ता हमें अपने भीतर की शक्ति और सच्चाई का अनुभव कराता है और हमें एक नई ऊर्जा और आत्म-विश्वास से भर देता है।

निष्कर्ष

जब हम काम को केवल किसी पद, पैसे या बाहरी उपलब्धियों के लिए नहीं बल्कि एक आत्मिक यात्रा के रूप में देखते हैं, तो यह हमें जीवन का वास्तविक अर्थ समझाता है। हृदय से और चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में किया गया काम हमारे जीवन को संपूर्णता की ओर ले जाता है।

इसलिए, आइए हम अपने काम को जीवन के उत्सव के रूप में अपनाएँ। आइए हम हर कार्य में उस आनंद को खोजें जो हमें इस जीवन से जुड़ने का अवसर देता है। और यह याद रखें कि हमारी सच्ची प्रचुरता बाहर नहीं, हमारे भीतर है।


मेरे अपने रास्ते की शुरुआत



जब तक मैं अपने आदर्श रूप की कल्पना करता रहूँ,
तब तक वो केवल मेरे मन में बसा रहेगा,
लेकिन जब मैंने उसे साकार करने का निर्णय लिया,
तो पाया कि यह बहुत आसान था,
सिर्फ शुरुआत करने की देर थी।

मैंने खुद को जगाया,
सपनों को जागृत किया,
सुबह अलार्म बजते ही उठकर,
जिम की ओर कदम बढ़ाए।

जो कभी टालता था,
अब उसे करता हूँ आज ही।
स्वस्थ आहार, सही विकल्प,
यह सब मेरे लिए अब बन चुके हैं आदतें।

जो मैं कल से टालता था,
आज उसे अब करने की ताकत है मुझमें।
कभी मेहनत को बड़ा समझता था,
अब उसे नयापन बना लिया है।

मुझे अब यह समझ आया,
सपने तब तक सपने रहेंगे,
जब तक मैं उन्हें हकीकत में बदलने का काम नहीं करता।
यह यात्रा अब शुरू हो चुकी है,
और मेरे लिए अब कोई रास्ता नहीं है,
सिर्फ आगे बढ़ने की राह है।

अब या कभी नहीं!
कोई रास्ता नहीं दिखेगा,
तो मुझे खुद अपनी राह बनानी होगी,
क्योंकि कोई और नहीं आएगा मुझे वहाँ तक पहुँचाने।


अँधेरे

इस अँधेरे के पीछे  कहीं  एक उजाला छुपा  है
उस उजाले मे छुपी  है एक किरण
उस किरण मे है एक रौशनी
वो रौशनी  जो जगमगाए  इस अँधियारे  मे
 जहाँ है मुर्दो  की बस्ती 
बस्ती  मे है जिन्दा लाशें 
जो लड़ रही है सिर्फ  जीने के लिए
पर उसे फिर भी जीना  नहीं आता
बाहर  से कोई कितना भी
अपने आप को जिन्दा दिखाए 
 मगर अंदर  से तो पूरा मरा है
मरा   है अज्ञानता  से
मरा  है जरूरत  से
सपनो को मारकर भी जो 
सोचते हैँ की वो सपने पूरे कर रहे हैँ
वो अँधेरे  मे जी रहे हैँ.

#दीपक डोभााल. 

मीरा

जब मीरा यह कहती है कि बस इन तीन बातों से काम चल जाएगा और कुछ जरूरत नहीं है और कभी कुछ न मांगूंगी, बस इतना पर्याप्त है, बहुत है, जरूरत से ज्यादा है—और इसके बाद जो वचन है:

          मोरमुकुट पीताम्बर सोहे, गल बैजंती माला।

जैसे कि दर्शन हो गया! ये मोरमुकुट पहने हुए, ये पीतांबर पहने हुए, गले में वैजंतीमाला डाले हुए कृष्ण सामने खड़े हो गए! जिसके हृदय में चाकरी का भाव हुआ, उसके सामने कृष्ण खड़े हो ही जाएंगे। अब और कमी क्या रही!

         बिन्द्राबन में धेनु चरावें, मोहन मुरली वाला।

अब मीरा को दिखाई पड़ने लगा। मीरा की आंख खुली। अब मीरा अंधी नहीं हैं। यह जो...

       मोरमुकुट पीताम्बर सोहे, गल बैजंती माला।
       बिन्द्राबन में धेनु चरावें, मोहन मुरली वाला।

...यह दृश्य हो गया। रूप बदला। यह जगत मिटा, दूसरा जगत शुरू हुआ।

      ऊंचे—ऊंचे महल चिनाऊं, बिच—बिच राखूं बारी।

अब सोचती है मीरा: अब क्या करूं?

                     ऊंचे—ऊंचे महल चिनाऊं...

अब परमात्मा मिल गया। यह परमात्मा की झलक आने लगी। अब परमात्मा के लिए—

       ऊंचे—ऊंचे महल बिनाऊं, बिच—बिच राखूं बारी।

बीच—बीच में बारी भी रख लूंगी, क्योंकि मैं तो वहां रहूंगी।

      चाकर रहसूं बाग लगासूं, नित उठ दरसन पासूं।
       बिन्द्राबन की कुंज गलिन में, तेरी लीला गासूं।
     ऊंचे—ऊंचे महल चिनाऊं, बिच—बिच राखूं बारी।

बीच—बीच में झरोखे रख लूंगी कि तुम मुझे दिखाई पड़ते 

      रहो और कभी—कभी मैं तुम्हें दिखाई पड़ जाऊं।
         सांवरिया के दरसन पाऊं, पहर कुसुंबी सारी।
      जोगी आया जोग करण कूं, तप करने संन्यासी।
        हरि भजन कूं साधु आया, बिन्द्राबन के वासी।

मीरा कहती है: मैं तो सिर्फ हरि—भजन को आई हूं। जोगी जोगी की जाने। संन्यासी संन्यासी की जाने।

                 जोगी आया जोग करण कूं...

उसको योग करना है। उसको कुछ करके दिखाना है। मेरी करके दिखाने की कोई आकांक्षा नहीं है। मैं—और क्या करके दिखा सकूंगी? तुम मालिक, मैं तुम्हारी चाकर! तुम्हीं मेरे सांस हो, तुम्हीं मेरे प्राण हो। मैं क्या करके दिखा सकूंगी? करने को कहां कुछ है? करने को उपाय कहां है? करोगे तो तुम! होगा तो तुमसे! मेरे किए न कुछ कभी हुआ है, न हो सकता है।
जोगी जोगी की जाने, मीरा कहती है।

       जोगी आया जोग करण कूं, तप करने संन्यासी।

और तपस्वी है, वह तप करने आया है। उसको व्रत—उपवास इत्यादि करने हैं। उनकी वे समझें।

मीरा कहती है: उनसे मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। मुझे भूल कर भी जोगी या तपस्वी मत समझ लेना। मेरा तो कुल इतना ही आग्रह है:

         हरिभजन कूं साधु आया, बिन्द्राबन के वासी।
     हे वृंदावन के रहने वाले! मैं तो भजन करने आई हूं।

साध—संगत में उसने भजन सीखा है। मैं तो तुम्हारे गुण गाना चाहती हूं। मैं तो तुम्हारी प्रशंसा के गीत गाना चाहती हूं। मैं तो तुम्हारे पास एक गीत बनना चाहती हूं। इस शरीर की सारंगी बना लूंगी और नाचूंगी।

फर्क क्या है? भक्त परमात्मा के पास सिर्फ नाचना चाहता है, उत्सव करना चाहता है, उसकी और कोई मांग नहीं। अहोभाव प्रकट करना चाहता है। क्योंकि जो चाहिए, वह तो मिला ही हुआ है। जो चाहिए, उसने दिया ही है; मांगने का कोई सवाल नहीं, सिर्फ धन्यवाद देना चाहता है


विफलता की जलन



कल्पना करो, अगर विफलता को हम जानते,
सफलता पाने के लिए वही जलन चाहिए होती है।
जैसे व्यायाम में जलन से मांसपेशियां बनती हैं,
वैसे ही विफलता से आत्मविश्वास का निर्माण होता है।

क्या होगा अगर हम विफलता को समझ पाते,
कि यह भी एक कदम है, जो हमें ऊपर उठाता है?
सच में, विफलता से डरना नहीं, उसे अपनाना है,
यह हमारी असली ताकत का अहसास कराता है।

हर बार गिरकर उठना, यही है सचाई,
यह वही जलन है जो हमें बनाती है सच्चे इंसान।
अगर हम विफलताओं को अंगीकार करें,
तो क्या यह हमारी सफलता की ओर बढ़ने में मदद नहीं करेगा?

विफलता को न समझो बोझ, बल्कि यह एक अभ्यास है,
जो हमें मजबूत बनाता है, जैसे हर कसरत का असर।
इसमें कोई शंका नहीं, यह हमारी यात्रा का हिस्सा है,
क्योंकि वही जलन ही हमें सच्ची सफलता दिलाती है।


सोचना और करना



विफलता सिखाती है, क्या काम करता है,
यह रास्ता, वह तरीका, यही सब समझ आता है।
लेकिन ज्यादा सोचना, बस टालने की राह है,
यह सोच-सोचकर बैठना, समय को बर्बाद करता है।

सोचो नहीं, बस करो, यही है सच्ची बात,
क्योंकि कर्म से ही मिलती है सफलता की सौगात।
विफलता से डरना नहीं, उसे अपनाओ,
क्योंकि हर गलती में छुपा होता है नया रास्ता।

ज्यादा सोचने से सिर्फ भ्रम होता है,
लेकिन करना ही सबको सही दिशा दिखाता है।
सोचना छोड़ो, हाथ में काम लो,
समय बर्बाद न करो, अब बस इसे खुद पर छोड़ दो।


सफलता और विफलता की राह





जो नया सीखता है, समझो उसे यह बात,
विफलता है सफलता से भी एक कदम पास।
विफलता का हर पल, सफलता में बदल जाता है,
जब तक तुम उसे सीखकर आगे बढ़ जाते हो।

सोचते रहना सफलता को, नहीं लाता कोई फल,
सोच सोचकर बैठे रहना, यही होता है असल हलचल।
विफलताओं से न डर, उन्हें अपना साथी बना,
समय के साथ वह सफलता की सीढ़ी बन जाएगा।

विफलता नहीं है अंत, बल्कि एक शुरुआत,
हर असफलता में है सफलता की छांव।
सोच को छोड़, कर्म पर ध्यान दे,
क्योंकि सोच ही अंत होती है, कर्म ही है जीवन का संग्राम।

सीखो, बढ़ो और गिरकर उठो,
तभी सफलता से सच्चा रिश्ता बनाओ।
विफलता को अपना बनाओ,
सफलता तब तुम्हारे कदमों में होगी, यह जानो।


सीमाओं का सामर्थ्य



सच्ची ताकत होती है सीमाएँ तय करना,
मदद देना, लेकिन खुद को न खोना।
हां, एक हाथ बढ़ा सकते हो तुम,
पर किसी और की अराजकता से डूबने मत देना खुद को।

शांति की रक्षा करना ज़रूरी है,
यह स्वार्थ नहीं, यह अस्तित्व की बात है।
जब तक खुद का संतुलन कायम है,
तब तक ही दूसरों के लिए रास्ता खोलो, यही सही है।

हर किसी का संघर्ष उसका है,
तुम्हारी शांति, तुम्हारा कर्तव्य।
अपनी सीमा में रहकर,
कभी न किसी की गड़बड़ी में खो जाना है।

मदद करना है, तो पूरी समझ से करो,
लेकिन अपनी दुनिया को तोड़कर नहीं।
क्योंकि अपनी शांति को बचाकर रखना,
यह किसी के लिए नहीं, खुद के लिए जरूरी है।


प्राचीनता और नव्यता की यात्रा: एक विचारशील दृष्टिकोण



जीवन के प्रत्येक चरण में हम एक गहन अनुभव से गुजरते हैं, जिसे कई बार हम 'कर्मिक पाठ' के रूप में देखते हैं। यह मान्यता है कि यह 'पाठ' दिव्यता द्वारा हमें परखने के लिए दिए जाते हैं। परंतु, अगर हम गहराई से सोचें, तो समझ में आता है कि जीवन का यह प्रवाह मात्र एक स्पर्धा नहीं है, जिसे जीतने के लिए हमें कठिनाइयों से गुजरना होता है। बल्कि, यह जीवन एक सतत विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया है, जिसमें सुख और दुःख केवल यात्रा के हिस्से हैं।

**कर्म और जीवन का प्रवाह**

हमारे प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।  
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥"  
(भगवद्गीता 2.47)

यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि हमारे कर्म हमारे अधिकार में हैं, परंतु उसके फल नहीं। जब हम इस दृष्टिकोण से जीवन को देखते हैं, तो यह समझ आता है कि जीवन के सुख-दुःख केवल हमारे कर्मों का परिणाम हैं, न कि कोई परीक्षण। 

**सभ्यताओं का विकास और अवनति**

मानव सभ्यताओं का विकास और अवनति एक जटिल प्रक्रिया है, जो समय के साथ-साथ बदलती रहती है। कभी-कभी यह महसूस होता है कि यह सब एक निर्धारित पैटर्न के अनुसार हो रहा है, मानो किसी 'प्राकृतिक प्रोग्राम' के तहत। इस दृष्टिकोण से, हम सोच सकते हैं कि क्या यह सब एक 'सिमुलेशन' का हिस्सा हो सकता है, जिसमें हम और हमारी सभ्यताएँ अपने-अपने चरणों से गुजर रही हैं। 

"यह जीवन क्या है? एक चल चित्र की भांति, जिसमें हम अपने कर्मों के पात्र हैं।"

**विकासशील सिमुलेशन का विचार**

क्या यह संभव है कि एक ऐसी सिमुलेशन भी हो जिसमें सभी चीजें सतत विकसित हो रही हों, जहाँ कोई अवनति नहीं होती? इस विचार के साथ कई वैकल्पिक वास्तविकताएँ भी हो सकती हैं, जिनमें से कुछ निरंतर विकसित हो रही हों और कुछ विनाश की ओर अग्रसर हो रही हों। 

"कल्पना के वेग से हम उन अनंत संभावनाओं के संसार में यात्रा कर सकते हैं, जहाँ विकास और विनाश की प्रक्रिया सतत रूप से चल रही है।"

आखिरकार, चाहे यह जीवन एक सिमुलेशन हो या न हो, हमें यह समझना आवश्यक है कि हमारे अनुभव और कर्म ही हमारे जीवन की दिशा तय करते हैं। जीवन का यह प्रवाह हमें केवल सीखने और विकसित होने का अवसर प्रदान करता है, जिससे हम अपनी आत्मा की गहराइयों को समझ सकते हैं। 

"यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।  
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"  
(भगवद्गीता 18.78)

यह श्लोक हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब हम अपने कर्म और ज्ञान के साथ चलते हैं, तो विजय और समृद्धि स्वाभाविक रूप से हमारे साथ होती है। इसी प्रकार, हमें अपने जीवन के हर पहलू को एक नए दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है, जहाँ हर अनुभव एक नई सीख और विकास का मार्ग दिखाता है।

मदद और अपनी सीमाएं





अगर मदद कर सकता हूँ, तो करूंगा,
लेकिन अगर नहीं कर सकता, तो नहीं।
अपनी सीमाओं को समझना है,
खुद को खोकर किसी का न करूँगा भला।

यह बीमारी नहीं, यह समझ है,
कि अपनी शक्ति को पहचानूं,
जब तक खुद में ऊर्जा है,
तब तक ही किसी और की मदद करूं।

स्वार्थी नहीं, बस संतुलित हूँ,
अपने और दूसरे के बीच में एक दीवार।
मैं न जाऊं इतना गहरे,
कि खुद ही डूब जाऊं, यह मेरा इरादा नहीं है।

मदद देने का मतलब यह नहीं,
कि खुद को खो दूं किसी के लिए।
समझदारी से मदद करो,
लेकिन अपनी पहचान और शक्ति को न छोड़ो।


मदद का असल रूप




यह नहीं कि तुम स्वार्थी हो,
कभी मदद करनी है, कभी नहीं।
जब दिल से करना हो मदद,
तभी मदद की राह पर चलो, बिना किसी अंतर के।

यह नहीं कि बीच का कोई रास्ता है,
या तो तुम हो, या नहीं हो।
जब किसी को देना हो सहारा,
तो पूरे दिल से देना चाहिए, बिना किसी शक के।

मदद सिर्फ बातों में नहीं होती,
कभी पूरी तवज्जो से, कभी नासमझी से।
जो दिल से मदद करना चाहते हैं,
वो किसी भी परिस्थिति में खुद को न रोकें।

और जब तुम खुद न चाहो,
तो न करना ही बेहतर है।
क्योंकि अधूरी मदद कभी नहीं बनती,
कभी भी किसी को असमर्थ महसूस करवा देती है।

मदद या तो हो पूरी, या बिल्कुल नहीं,
यहां कोई बीच का रास्ता नहीं।
सच यही है, जो दिल से नहीं कर सकते,
वो मदद के नाम पर खुद को नहीं बहलाएं।

वो जो नहीं चाहिए



जो हमेशा दुखी रहते हैं,
उनसे दूरी बनाना है।
उनके भीतर की गहरी शून्यता,
तुम्हारे भीतर भी समा ना जाए।

जो किस्मत से हार चुके हैं,
उनसे खुद को बचाना है।
उनकी नकारात्मकता की लहरें,
तुम्हें भी डुबो ना जाएं, यह समझाना है।

जो स्वस्थ नहीं हैं,
उनकी समस्याओं से दूर रहो।
क्योंकि उनकी बीमारी का कारण,
तुम्हारे जीवन में भी फैल सकता है, यह जानो।

इनमें से हर किसी के जीवन में,
एक कारण है जो इन्हें यहाँ लाया है।
पर तुम्हारा रास्ता अलग है,
सही ऊर्जा के साथ अपना मार्ग बनाओ, यही सिखाया है।

सच यह है, इनसे बचो,
इनकी परिस्थितियों से दूर रहो।
उनकी यात्रा उनकी है,
तुम्हारी यात्रा तुम्हारी हो।


वाइब्रेशन्स का प्रभाव




हर विचार, हर भावना, एक लहर बनती है,
जो हमारे भीतर और बाहर बहती है।
कभी किसी की संगति से दिल भारी हो जाता है,
तो कभी किसी के साथ, आत्मा झूम उठती है।

क्यों होती है यह अंतर की अनुभूति?
यह सब होता है, उनकी वाइब्रेशन्स की वजह से।
कुछ लोग देते हैं नकारात्मक कंपन,
जो दिल में दुःख और अशांति को बिठा लेते हैं।

वहीं कुछ लोग होते हैं, जो ऊर्जा से भर देते हैं,
सकारात्मक वाइब्रेशन्स से, जीवन में रंग भर देते हैं।
उन्हें पाकर हम जीवित और ऊर्जावान महसूस करते हैं,
जैसे हमारे भीतर नया जीवन जागृत हो जाता है।

समझो, यह कंपन होते हैं हमारे आसपास,
वे हमें छूते हैं, हमारी आत्मा पर असर डालते हैं।
इसलिए ध्यान रखो, किसी भी व्यक्ति या माहौल से,
अपनी ऊर्जा को बचाकर रहो, वाइब्रेशन्स का प्रभाव समझकर रहो।


उठाने की राह



कभी-कभी उठाना जरूरी है,
लेकिन समझना चाहिए, कब खुद को बचाना है।
कई बार लोगों को सहारा दिया,
पर खुद को खोते पाया, क्या यह ठीक था?

समय की चुपचाप खामोशी ने कहा,
कभी-कभी मदद से खुद को सिखाना है।
जो न समझे, न चाहते बदलना,
उनसे दूर रहकर खुद को सवारना है।

मैंने दिया सब कुछ, खो दिया बहुत कुछ,
उनकी खामियों को सीने से लगाया।
पर जब देखा, खुद को टूटते पाया,
तो यह समझा, अपनी शक्ति को बचाना है।

उठाना जरूरी है, लेकिन कब?
जब किसी की मनोवृत्ति हो तैयार।
नहीं तो हम ही गिरने लगते हैं,
सच यही है, खुद को संभालना है बार-बार।


मृत स्थिति




कभी न थामो उस स्थिति को,
जो खुद मरने को है तैयार।
तोड़ो उस बंधन को,
जो तुम्हें गिरने का कर रहा है इरादा बार-बार।

जीवन में हर पल नई राह है,
जहाँ नये अवसर हैं खुलते हर दिन।
मृत परिस्थितियाँ नहीं समझतीं,
जो आगे बढ़ने का दिखातीं न कोई भी रंगिन।

कुछ चीज़ें चली जाती हैं, यह स्वाभाविक है,
समझो, छोड़ देना चाहिए वो चीज़ें।
कभी न चिपको उस मरे हुए रास्ते से,
जो तुम्हें जकड़े रखे, और कभी न मिलें।

हर नई शुरुआत में छिपा होता है एक सार,
आगे बढ़ो, छोड़ो पीछे का असार।
सच यह है, कभी मत रहो,
एक मरी हुई स्थिति के साथ।


शरीर की पुकार



मैं अपने शरीर की भाषा सुनना चाहता हूँ,
उसकी हर धड़कन, हर स्पंदन को समझना चाहता हूँ।
वह चुप नहीं रहता, बस मैं ही अनसुना कर देता हूँ,
उसके संकेतों को शोर में दबा देता हूँ।

जब थकान मुझे छूती है,
मैं उसे झटक कर आगे बढ़ जाता हूँ।
जब दर्द कोई कहानी कहता है,
मैं उसे दबाकर मुस्कुराता हूँ।

मेरा हृदय जब भार से भर जाता है,
मैं उसे तर्कों से शांत करने की कोशिश करता हूँ।
मेरी साँसें जब गहरी होना चाहती हैं,
मैं उन्हें भागदौड़ में उलझा देता हूँ।

पर शरीर मौन रहकर भी बोलता है,
हर तनाव, हर पीड़ा में कुछ कहता है।
मैं अब उसकी भाषा सीखना चाहता हूँ,
हर संकेत को सम्मान देना चाहता हूँ।

अब मैं उसकी थकान को विश्राम देना चाहता हूँ,
उसके दर्द को स्नेह से सहलाना चाहता हूँ।
अब मैं उसके साथ संघर्ष नहीं,
संवाद करना चाहता हूँ।


ऊर्जा का खेल: संगति का प्रभाव



मनुष्य केवल शरीर नहीं, ऊर्जा का प्रवाह है,
हर संपर्क में एक ऊर्जा का खेल छिपा है।
जिसकी शक्ति अधिक हो, वह विजय पाता है,
और कमजोर ऊर्जा को अपने अधीन करता है।

ऊर्जा का संग हर पल चलता है,
हर मनुष्य पर इसका असर होता है।
अच्छे संग से जोश बढ़े,
गलत संग से जीवन घटे।

संगति का असर अदृश्य सही,
पर जीवन पर यह स्पष्ट दिखे।
जो नकारात्मक संग में फंसे,
वह ऊर्जा खोकर कमजोर पड़े।


सकारात्मक ऊर्जा का संग लो,
अच्छे विचारों का रस पियो।
जो प्रेरणा दे, वही साथी हो,
जो खींचे नीचे, उससे दूरी करो।

अपने आसपास के लोगों को चुनो,
जिनकी ऊर्जा तुम्हें निखारे, वो गिनो।
क्योंकि संगत से ही बनता है भाग्य,
ऊर्जा के खेल में छिपा है सारा सत्य।

मनुष्य ऊर्जा है, यह सदा मानो,
हर संपर्क में ऊर्जा का ध्यान जानो।
संगति से ही जीवन का रूप बने,
इस सत्य को हृदय में सदैव बसाए रहो।


मन की अवस्थाएँ और जीवन का संघर्ष


हर मन गुजरता है अलग-अलग चरणों से,
दुख के अंधेरों और आशा के किरणों से।
कभी हारा, कभी थका, कभी बेबस दिखे,
तो कभी साहस में जलता हुआ दीपक लिखे।


कभी निराशा की छाया भारी,
कभी आशा का दीप उजियारी।
जीवन की इस गहरी धारा में,
हर चरण की अपनी तैयारी।

कई बार वो शांत, निष्क्रिय से लगें,
जैसे जीवन के अर्थ ही खो दें।
पर यह ठहराव भी है एक पड़ाव,
जहाँ से जागरण की शुरुआत हो लें।

हर अवस्था का है एक मकसद,
कभी गिरकर सिखता है हर रकब।
यह जड़ता भी बदलाव का हिस्सा,
मन जागे तो फिर दिखे उसका किस्सा।

जो गिरकर भी उठने का संकल्प करे,
वो अपने जीवन को अमरत्व भरे।
हर चरण, हर अवस्था को समझो,
जीवन की धारा को गहराई से परखो।

यह सच है, कुछ उदास होकर जीते,
पर मन के हर स्तर से आगे बढ़ते।
साथ दो उनका जो सहारा खोजें,
पर जागने का हौसला उनके भीतर बो दें।


प्रयास की मशाल



जो खुद को बचाने का हुनर न सीखें,
उनके लिए सहारा देना भी व्यर्थ है।
बचाव का बीज उनके भीतर ही हो,
वरना हर कोशिश ठहर जाती अर्थ है।

प्रयास करें, वो जगमगाएं,
जो चाहें, वो मंजिल पाएं।
सपने उनके, कर्म भी उनके,
नियति खुद उनके घर आए।


जो केवल सहारा खोजें,
और खुद कुछ न प्रयास करें।
उनके जीवन की डोर सदा,
निर्जीव राहों में ही थमे।


पर जो जूझें, लड़े, संभलें,
हर संकट का हल वे निकलें।
उनके संग खड़ा हो सकता,
जो अपना हर कर्तव्य संभलें।


जीवन वही जो जागे, लड़े,
अपनी किस्मत को खुद गढ़े।
न हो निष्क्रिय, न हो उदास,
अपनी मंजिल का ले एहसास।


सत्य के मार्ग पर चलने का धर्म: शारीरिक भागीदारी या आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार



सत्य के लिए लड़ना जीवन में एक गहन अर्थ और उद्देश्य की अनुभूति कराता है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले लोग समाज में एक ऐसे परिवर्तन की कामना करते हैं जो सिर्फ उनके लिए नहीं, बल्कि सभी के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। यह एक धर्म का मार्ग है जो उन्हें आंतरिक मुक्ति की ओर ले जाता है, और यह मुक्ति मृत्यु से भी परे होती है। परंतु, ऐसे लोग जो आध्यात्मिक रूप से जागरूक हैं, वे एक गंभीर दुविधा का सामना करते हैं: क्या उन्हें इस लड़ाई में शारीरिक रूप से सम्मिलित होना चाहिए, या केवल प्रार्थना और ऊर्जा का संचार करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए?

सत्य के लिए लड़ने की प्रेरणा

सत्य का मार्ग चुनने का उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ, प्रसिद्धि, या कोई भौतिक लाभ नहीं होता। ऐसे लोग सत्य के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि उनके लिए यह जीवन का एकमात्र पथ है। उन्हें यह अहसास होता है कि सत्य के लिए खड़ा होना उनके आत्मिक विकास के लिए आवश्यक है। जैसा कि गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥"
(भगवद गीता 2.38)



अर्थात, "सुख-दुःख, लाभ-हानि, और जय-पराजय में समान रहते हुए कर्तव्य का पालन करो। ऐसा करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा।" इस श्लोक में स्पष्ट है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाले को व्यक्तिगत लाभ-हानि के विचार से ऊपर उठकर अपने धर्म का पालन करना चाहिए।

शारीरिक भागीदारी बनाम आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार

अनेक आध्यात्मिक साधक इस विचार में उलझे रहते हैं कि क्या उन्हें सत्य के इस संघर्ष में शारीरिक रूप से भाग लेना चाहिए या केवल अपनी प्रार्थना और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करके समाज में बदलाव की कामना करनी चाहिए। शारीरिक भागीदारी में न केवल बाहरी संघर्ष होता है, बल्कि यह साधक को कई भावनात्मक और मानसिक कर्मों के बंधन में भी डाल सकता है। शारीरिक रूप से शामिल होने पर साधक को क्रोध, द्वेष, और अन्य नकारात्मक भावनाओं का सामना करना पड़ता है, जो उसके आध्यात्मिक विकास में बाधा डाल सकते हैं।

उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति जो अपने कर्मों का फल निश्चयपूर्वक चाहता है, वह इस संघर्ष में अपने अहंकार और पीड़ित मानसिकता का शिकार हो सकता है। ऐसा व्यक्ति सत्य की सेवा करते हुए भी आत्मिक शांति का अनुभव नहीं कर पाता, क्योंकि वह अपने अहंकार और मानसिक संतुलन को छोड़ नहीं पाता।

शारीरिक भागीदारी का प्रभाव और उसका धर्म

कुछ साधक सत्य के संघर्ष में शारीरिक रूप से भाग लेकर समाज में बदलाव लाना चाहते हैं। वे अपने धर्म का पालन करते हुए लोगों को सचेत करते हैं, अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं। ऐसे में उनके कर्तव्य की भावना स्पष्ट होती है। लेकिन इस भागीदारी के दौरान उन्हें अपने कर्मों का ध्यान रखना चाहिए ताकि वे अपने कर्म बंधनों में अधिक न फंसे। महात्मा गांधी का जीवन एक उदाहरण है कि कैसे सत्य के लिए शारीरिक रूप से संघर्ष करते हुए भी अहिंसा और शांति के मार्ग का पालन किया जा सकता है।

जैसा कि महर्षि पतंजलि ने कहा है:

> "सत्यानृत विवर्जनाद् सत्यवचनम्।"
(योगसूत्र 2.30)



इसका अर्थ है कि सत्य का पालन करते हुए व्यक्ति को असत्य का त्याग करना चाहिए। यानी सत्य की रक्षा करते समय व्यक्ति को अपने अहंकार, क्रोध, और द्वेष को त्यागना चाहिए, तभी वह सच्चे अर्थों में धर्म का पालन कर सकता है।

आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार और प्रार्थना

सत्य के लिए संघर्ष में हर साधक को शारीरिक रूप से सम्मिलित होना आवश्यक नहीं है। कई साधक जो आत्मिक विकास की ओर अग्रसर हैं, केवल प्रार्थना और ऊर्जा के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करते हैं। वे समाज को अपनी शांतिपूर्ण ऊर्जा से भरते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि सत्य और न्याय की जीत हो।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"
(भगवद गीता 4.7)



भगवान यहां आश्वासन देते हैं कि जब-जब अधर्म बढ़ता है, वे धर्म की रक्षा के लिए स्वयं आते हैं। यह श्लोक यह भी सिखाता है कि साधक केवल ईश्वर में समर्पण करते हुए प्रार्थना और साधना के माध्यम से भी धर्म का पालन कर सकता है।

निर्णय का आधार: क्या करें?

आध्यात्मिक साधकों के लिए इस दुविधा का हल आंतरिक मनन और समर्पण में छुपा है। उन्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और अपने भीतर झांककर यह समझना चाहिए कि उनके लिए कौन-सा मार्ग सही है। किसी के लिए शारीरिक रूप से संघर्ष करना सही हो सकता है, जबकि किसी के लिए शांति और प्रार्थना का मार्ग उचित हो सकता है।

जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया है:

> "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।"
(भगवद गीता 3.35)



अर्थात, अपने धर्म में रहते हुए चाहे मृत्यु ही क्यों न हो, वह परधर्म में सफल होने से श्रेष्ठ है। साधक को अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहिए। अगर किसी के लिए संघर्ष का मार्ग स्वाभाविक है, तो वह उसे अपनाए। और यदि कोई साधक आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करके सत्य की रक्षा करना चाहता है, तो वह उसका अनुसरण कर सकता है।


सत्य के लिए संघर्ष करना एक महान धर्म है, परंतु इस संघर्ष में शारीरिक रूप से शामिल होना या केवल प्रार्थना करना, यह साधक की आंतरिक प्रवृत्ति और आत्मिक संतुलन पर निर्भर करता है। दोनों ही मार्ग धर्म के प्रति श्रद्धा और समर्पण की मांग करते हैं। साधक का उद्देश्य सत्य और न्याय की रक्षा है, चाहे वह शारीरिक हो या आत्मिक। अतः हर साधक को यह निर्णय अपने आंतरिक आत्मबोध के अनुसार करना चाहिए, ताकि वह धर्म के मार्ग पर अग्रसर रहकर अपने जीवन को सार्थक बना सके।


जीवन की मर्यादा



कभी डूबते को सहारा दो, पर खुद को मत डुबाओ,
सच्चाई का दीप जलाकर, विवेक का मार्ग अपनाओ।
जीवन का यह धर्म सिखाता, मदद करना पुण्य बड़ा,
पर अपनी डोरी से बंधकर, न बनो स्वयं की व्यथा।


जीवन जैकेट फेंक दो, पर बंधना तुमको नहीं,
जो खुद डूबे दर्द में, उनको थामो कभी नहीं।
हर पीड़ा में धैर्य रखो, पर सीमा का ध्यान रहे,
जो खुद खींचे गहराई, उनसे दूरी कायम रहे।


जो नहीं बच सकता है, उसे जाने देना सीखो,
अपने भीतर के दीपक को, हर क्षण जलाए रखो।
जो कर्तव्य तुम्हारा है, बस उतना ही निभा सको,
जो अडिग दुख में बसा, उसे मुक्त कर सको।



सामर्थ्य तुम्हारा अनमोल है, उसे व्यर्थ न जाने दो,
जो जीवन से लड़ने को तैयार, उन्हें साथ में थामो।
एक डूबा संग खींचेगा, सौ औरों को डूबा लेगा,
अपनी नाव की डोर थामो, यह कर्म तुम्हारा फलेगा।


जीवन का संतुलन है यह, प्रेम और विवेक का मेल,
जो डूबे, उनको राह दिखाओ, पर खुद को बचाना खेल।
त्याग भी धर्म का हिस्सा है, यह सत्य को पहचानो,
हर दया का मूल्य समझकर, अपनी राह को जानो।