नक्सलवाद, जिसे माओवाद या माओवादी आंदोलन भी कहा जाता है, भारतीय समाज में एक गंभीर राजनीतिक और सामाजिक समस्या के रूप में उभरा है। इस आंदोलन की जड़ें 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में पड़ीं, जब चारु मजूमदार और कांति चंद्रा ने किसान विद्रोह की शुरुआत की थी। नक्सलवाद के इस इतिहास को समझने के लिए हमें इसके कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को गहराई से देखना होगा—जिनमें भर्ती प्रक्रिया, लिंग असमानताएँ, और आर्थिक स्रोत शामिल हैं।
भूमि और संसाधनों की पहुँच
नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 1960 के दशक के अंत में आदिवासी किसानों और जमींदारों के बीच संघर्ष के रूप में हुई थी। इसके प्रमुख कारणों में भारतीय सरकार की भूमि सुधारों को लागू करने में विफलता शामिल थी, जिनके तहत आदिवासियों को उनके पारंपरिक भूमि अधिकारों के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व देना था। भूमि सीमांकन कानूनों का उद्देश्य जमींदारों के पास अतिरिक्त भूमि को सीमित करना था और इस अतिरिक्त भूमि का वितरण भूमिहीन किसानों और मजदूरों के बीच करना था, लेकिन इन सुधारों का प्रभावी रूप से कार्यान्वयन नहीं हुआ।
मaoवादी समर्थकों के अनुसार, भारतीय संविधान ने "उपनिवेशी नीति को मान्यता दी और राज्य को आदिवासी भूमि का संरक्षक बना दिया," जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी समुदायों को अपनी ही ज़मीन पर बेदखल किया गया। इस तरह, आदिवासी जनसंख्या को अपनी पारंपरिक वन उत्पादों से वंचित कर दिया गया, और यह आंदोलन आदिवासी समुदायों द्वारा राज्य के संरचनात्मक हिंसा और खनिज निष्कर्षण के लिए भूमि के उपयोग के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में उभरा।
उदाहरण: झारखंड और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में, जहां खनन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का शोषण हुआ, नक्सलवाद का समर्थन बढ़ा क्योंकि यह समुदायों के लिए एक शक्तिशाली प्रतिरोध बनकर सामने आया।
. चारु मजूमदार का "क्रांतिकारी व्यक्तित्व" सिद्धांत और भर्ती प्रक्रिया
चारु मजूमदार ने नक्सल आंदोलन के लिए एक विशेष प्रकार के "क्रांतिकारी व्यक्तित्व" की अवधारणा प्रस्तुत की थी। उनके अनुसार, नक्सलियों को खुद को त्याग करने और समाज की भलाई के लिए बलिदान देने की मानसिकता के साथ प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, नक्सल आंदोलन ने छात्रों और युवाओं को भर्ती किया। यह न केवल आंदोलन के विचारधारा के प्रसार के लिए था, बल्कि इन युवा विद्रोहियों के माध्यम से नक्सलियों ने सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष को जारी रखा।
उदाहरण: 1970 के दशक में नक्सलियों ने मुख्य रूप से छात्रों को अपनी विचारधारा फैलाने के लिए चुना, क्योंकि ये लोग शिक्षित थे और आसानी से गांवों में जाकर माओवादी विचारधारा का प्रचार कर सकते थे। इस प्रक्रिया को एक प्रकार का "क्रांतिकारी प्रशिक्षण" माना जाता था।
ग्रामीण विकास और सुरक्षा
नक्सल प्रभावित क्षेत्र वे थे, जहां राज्य ने अपनी उपस्थिति महसूस नहीं कराई थी। इन क्षेत्रों में न तो बिजली थी, न पानी और न ही स्वास्थ्य सेवाएं। इन कठिन परिस्थितियों में, नक्सलियों ने इन ग्रामीण समुदायों को राज्य जैसे कार्य प्रदान किए, जैसे पानी की सिंचाई के लिए परियोजनाएं, बाढ़ नियंत्रण, और समुदाय-आधारित श्रम के माध्यम से भूमि संरक्षण कार्य। इसके बदले में, इन क्षेत्रों के लोग नक्सलियों का समर्थन करते थे क्योंकि वे अपने समुदायों में सेवा प्रदान कर रहे थे।
नक्सलियों के स्वास्थ्य अभियान जैसे मलेरिया टीकाकरण ड्राइव और ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं का प्रबंधन भी उल्लेखनीय था, जहां कोई डॉक्टर या अस्पताल नहीं थे। इन पहलुओं ने उन्हें एक वैध प्रशासन के रूप में स्थापित किया, जिसे लोग सुरक्षा और विकास के लिए एक भरोसेमंद शक्ति मानते थे।
उदाहरण: छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र में, जहां नक्सलियों ने गांववालों के साथ मिलकर बारिश जल संचयन और जलाशय निर्माण का काम किया, इसके परिणामस्वरूप फसल में सुधार हुआ और खाद्य सुरक्षा की स्थिति बेहतर हुई।
नक्सलियों द्वारा किए गए विकासात्मक कार्य
भारतीय सरकार ने यह दावा किया था कि नक्सलियों ने विकास योजनाओं को रोकने का काम किया, लेकिन 2010 में किए गए एक अध्ययन ने यह साबित किया कि नक्सलियों ने न्यूनतम मजदूरी लागू करने के साथ-साथ कृषि कार्यों के लिए समुदाय से श्रम जुटाया। यह अध्ययन विशेष रूप से ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड के 200 नक्सल प्रभावित जिलों में किया गया था। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि नक्सली विकास कार्यों में बाधा नहीं डाल रहे थे, बल्कि उन्होंने क्षेत्र में सामाजिक और आर्थिक सुधारों का समर्थन किया था।
उदाहरण: ओडिशा और झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में, नक्सलियों ने न केवल सामूहिक श्रम के द्वारा सिंचाई कार्यों और जल संचयन परियोजनाओं का संचालन किया, बल्कि उन्होंने स्थानीय आदिवासी समुदायों को अपनी पारंपरिक आजीविका के रूप में वन उत्पादों पर निर्भरता कम करने के लिए शिक्षा भी प्रदान की।
नक्सलवाद में महिलाओं की स्थिति: समानता या शोषण?
नक्सलवाद ने महिलाओं को न केवल संगठनों में शामिल किया, बल्कि उन्हें शोषण और हिंसा के खिलाफ संघर्ष करने के रूप में एक क्रांतिकारी भूमिका भी दी। 1986 में स्थापित "क्रांतिकारी आदिवासी महिला संघठन" (Krantikari Adivasi Mahila Sangathan) ने आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया। यह संगठन आदिवासी समाज में बलात्कार, बहुविवाह और हिंसा के खिलाफ अभियान चला रहा था।
हालांकि, शोभा मांडी, जो पहले नक्सलियों की सदस्य थीं, ने अपनी पुस्तक "एक माओवादी की डायरी" में नक्सली कमांडरों द्वारा सात साल तक बलात्कार और शारीरिक शोषण का आरोप लगाया है। इसने नक्सल आंदोलन के भीतर महिलाओं के प्रति शोषण की स्थिति को उजागर किया। महिलाओं को आंदोलन में शामिल होने के बावजूद, उन्हें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ा।
उदाहरण: शोभा मांडी की व्यक्तिगत कहानी नक्सल आंदोलन के भीतर महिलाओं के शोषण और हिंसा के गहरे पहलुओं को दर्शाती है। उनके अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि नक्सल आंदोलन में क्रांतिकारी उद्देश्य और व्यक्तिगत शोषण की घटनाएँ दोनों साथ-साथ चल रही थीं।
नक्सलवाद का वित्त पोषण: खनिज उद्योग और ड्रग्स
नक्सलियों की वित्तीय स्थिति को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि वे किस तरह से अपने संगठन को आर्थिक रूप से सशक्त बनाते हैं। नक्सलियों का मुख्य वित्तीय स्रोत खनिज उद्योग, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में खनन से आता है जो नक्सल प्रभाव क्षेत्र में हैं। इन क्षेत्रों में नक्सल संगठन कंपनियों से "सुरक्षा शुल्क" के नाम पर 3% तक की राशि वसूलते हैं।
इसके अलावा, नक्सली ड्रग व्यापार से भी पैसे कमा रहे हैं। वे मादक पदार्थों जैसे अफीम और गांजे की खेती करते हैं, जिसे फिर देशभर में वितरित किया जाता है। अनुमानित रूप से, नक्सलियों का 40% वित्तीय स्रोत ड्रग व्यापार से आता है।
उदाहरण: 2006 में एक रिपोर्ट में बताया गया था कि नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ और झारखंड में खनिज उद्योग से ₹14,000 करोड़ (लगभग 170 मिलियन अमेरिकी डॉलर) की वसूली की थी। इसके अलावा, उनके द्वारा मादक पदार्थों की तस्करी में भी भारी मात्रा में पैसा कमा रहे थे।
### 4. नक्सलवाद और राज्य की प्रतिक्रिया
भारत सरकार और सुरक्षा बलों ने नक्सल आंदोलन के खिलाफ कई ऑपरेशन किए हैं, जैसे कि ऑपरेशन ग्रीन हंट। हालांकि, इन ऑपरेशनों में भारी मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएँ भी सामने आई हैं, जिसमें नक्सलियों के खिलाफ बल प्रयोग और आदिवासी समुदायों के खिलाफ अत्याचार शामिल हैं। इन संघर्षों ने न केवल राज्य और नक्सलियों के बीच की खाई को और गहरा किया, बल्कि आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के बीच विश्वास की भी कमी पैदा कर दी है।
उदाहरण: 2005 में "सलवा जुडुम" नामक एक अभियान शुरू किया गया, जिसमें आदिवासियों को सुरक्षा बलों के साथ सहयोग करने के लिए मजबूर किया गया। यह अभियान न केवल नक्सलियों के खिलाफ था, बल्कि आदिवासी लोगों को अपनी जमीन और घर छोड़ने पर भी मजबूर किया गया, जिससे इन क्षेत्रों में असुरक्षा और हिंसा बढ़ी।
नक्सलवाद भारतीय समाज की गहरी असमानताओं और उत्पीड़न का परिणाम है। हालांकि नक्सलियों ने अपने आंदोलन के माध्यम से कुछ आदिवासी और ग्रामीण समुदायों में जागरूकता और शिक्षा का प्रसार किया है, लेकिन इस आंदोलन के भीतर हिंसा, शोषण और भ्रष्टाचार के मुद्दे भी उत्पन्न हुए हैं। यदि हमें इस समस्या का समाधान निकालना है, तो हमें नक्सलवाद के कारणों, इसके प्रभाव और इसके द्वारा उत्पन्न समस्याओं का गहन अध्ययन करना होगा, ताकि हम एक संतुलित और स्थिर समाधान तक पहुँच सकें।
नक्सलवाद,, एक जटिल और बहुआयामी संघर्ष है। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें भूमि अधिकार, संसाधनों की असमानता, और राज्य की उपेक्षा प्रमुख हैं। इस आंदोलन के कारणों को समझना न केवल नक्सलवाद की उत्पत्ति को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी बताता है कि क्यों यह मुद्दा आज भी भारतीय समाज में एक गंभीर समस्या बना हुआ है।
नक्सलवाद का विस्तार भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं, शोषण और राज्य की उपेक्षा के कारण हुआ है। जहां एक ओर नक्सलियों ने आदिवासी और ग्रामीण समुदायों में जागरूकता फैलाई और सामाजिक सेवाएं प्रदान की, वहीं दूसरी ओर आंदोलन के भीतर हिंसा, शोषण और भ्रष्टाचार की घटनाएँ भी सामने आईं। नक्सलवाद का एकमात्र समाधान नहीं है, लेकिन इसका जड़ से समाधान उन समस्याओं की पहचान और हल करने में है जो इसके उभरने का कारण बनी हैं।
अंततः, नक्सलवाद एक गंभीर सामाजिक और राजनीतिक चुनौती है जिसे केवल सुरक्षात्मक उपायों से नहीं, बल्कि व्यावहारिक और सामाजिक न्याय आधारित उपायों से ही समाप्त किया जा सकता है।
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