अहंकार का खेल



मैंने देखा, एक साधु ने,
मेरे मन के भाव को पढ़ लिया।
नाम लिया, गांव बताया,
और नीम के पेड़ का पता दिया।
मन चमत्कृत हो उठा,
सोचा, ये दिव्यता का सार है।
पर भीतर से आवाज आई,
क्या ये सच में धर्म का आधार है?

धर्म तो निर्लेप है,
न नाम, न रूप, न कोई ठिकाना।
यह संसार के खेल में खोया,
अहंकार का केवल बहाना।
साधु हो या जादूगर,
कला वही, बस रंग अलग।
पर सच्चाई कहां छुपती है,
जब सत्य का न हो कोई वल्ग।

अहंकार को चाह है,
दूसरों के ध्यान की, पहचान की।
दस हजार आंखें देखें मुझे,
या लाखों जुबानें करें वाणी।
मैं बड़ा बनूं, मैं श्रेष्ठ बनूं,
यह ख्वाहिश हर पल जलती है।
संसार का यह खेल बड़ा,
पर आत्मा तो केवल हंसती है।

साधु कहे, मैं सब जानूं,
पर भीतर का अंधकार न हटे।
राजनेता भीड़ को लुभाए,
पर सत्य का दीपक न जले।
धर्म कहां है इन बातों में,
यह तो सिर्फ अहंकार की माया।
धर्म तो मौन में खिलता है,
जहां न कोई झूठ, न छल का साया।

मैंने पूछा अपने आप से,
क्यों दूसरों को रिझाना चाहूं?
क्यों भीड़ के आगे झुककर,
खुद का अस्तित्व मिटाना चाहूं?
अहंकार चाहे बने केंद्र बिंदु,
पर आत्मा तो निराकार है।
यह चाह कि मुझे सब देखें,
पानी पर लकीरों का व्यापार है।

ध्यान में उतर, मौन को छू,
संसार की भीड़ से दूर चल।
जहां न कोई आंख देखे तुझे,
न कोई प्रशंसा का हो पल।
वहां आत्मा खिलती है,
जहां बस तू और तेरा सत्य है।
अहंकार वहीं मिटता है,
जहां न कोई पहचान का रथ है।

तो मत ढूंढ पहचान को,
यह अज्ञान का मार्ग है।
ध्यान कर, भीतर देख,
यह जीवन अनमोल उपहार है।
अहंकार की इस दौड़ से,
मुक्त हो जा, सजग बन।
धर्म वहीं खिलता है,
जहां केवल सत्य की अगन।


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