मेरा मन, कभी प्रश्न पूछता है,
क्या मेरी सफलता किसी और का दुःख बन सकती है?
क्या मेरा विजयपथ, किसी और की हार का कारण है?
यह विचार, जैसे जीवन का कोई गहन यक्ष प्रश्न।
सफलता, जो मेरा स्वप्न है, मेरा धर्म है,
परंतु धर्म का आधार तो अहिंसा है,
कर्मयोग का पथ, जो गीता ने सिखाया,
"सर्वभूतहिते रतः" का आदर्श अपनाया।
मैं सोचता हूं,
क्या मेरा उत्कर्ष, औरों का पतन बन जाए?
परंतु सत्य यह है—
"संसार परिवर्तनशीलं"।
हर परिवर्तन में छिपा है श्रेय और प्रेय।
कभी-कभी जो हानि लगता है,
वही शिक्षा बनकर सामने आता है।
मेरा कार्य, मेरा उद्देश्य, मेरा स्वधर्म है,
दूसरों के लिए मैं अनर्थ नहीं चाहता,
पर क्या स्वयं को रोककर मैं पाप का भागी बन जाऊं?
"न चेदिहावाप्यसि धर्म्यमसंभवम"।
धर्म का पालन, आत्मा की पुकार है,
जो सही है, वही सदा स्वीकार है।
मेरी सफलता, किसी और का हक नहीं छीनती,
यह सहयोग का संदेश देती है।
मैं अपना प्रकाश फैलाऊं,
ताकि औरों के दीप जलाऊं।
यदि मेरा पथ सत्य और न्याय का है,
तो मेरा हर कदम, हर कर्म, कल्याणकारी होगा।
सच्ची सफलता वह है,
जिसमें मैं भी खिलूं और जग भी महके।
मैं स्वार्थ से ऊपर उठकर,
सर्वजनहिताय की राह चुनूं,
अपनी सफलता को एक ऐसा यज्ञ बनाऊं,
जिसमें कोई अहंकार न हो,
सिर्फ स्नेह, सहानुभूति, और सत्य का दीप जले।
"वसुधैव कुटुम्बकम्"—
यह मेरा आदर्श, मेरा मार्गदर्शक बने,
और मेरी सफलता, सबके लिए आनंद का कारण बने।
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