खुद से खेलना



गह! चमड़ी उतारता हूँ
अब तो ये हद हो गई, बस—
क्या कभी मैंने सोचा था ऐसा,
कि खुद को फिर से नया बनाऊँगा?

है, ये जो मैं हूँ, ये क्या है?
अब तो थोड़ी और क्रिएटिविटी दिखाऊँ,
उतारूँ, फिर से पहन लूँ कुछ और,
कभी ग्रीन, कभी रेड, कभी ब्लू!

मुझे तो अब लगता है,
क्या फर्क पड़ता है इस सब से?
मेरा रूप बदलता रहे,
मेरा दिल वही, वही चमकते चेहरे!

कभी सोचता हूँ, और कभी हँसता हूँ,
खुद से ये मजाक करता हूँ!
न कोई गंभीरता, न कोई डर,
बस मस्ती में खो जाने का सफर।

तो अब चमड़ी उतार ली मैंने,
और मन में फुर्र से उड़ा हूँ!
क्योंकि यही है मेरा तरीका,
हंसी में जीने का अपना तरीका!


Maya: Unraveling the Illusions of Human Consciousness- 2

In the labyrinth of human consciousness, Maya's psychology, as depicted in dreams, desires, love, and the quest for ultimate happiness, finds resonance in the ancient wisdom of Sanskrit shlokas:

ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय॥
शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

Om Asato Ma Sadgamaya.
Tamaso Ma Jyotirgamaya.
Mrityorma Amritam Gamaya.
Om, lead us from falsehood to truth,
From darkness to light,
From death to immortality.
Peace, Peace, Peace.

This shloka from the Brihadaranyaka Upanishad encapsulates the essence of Maya's illusion, guiding us on a journey from ignorance to enlightenment. Maya, the veil of illusion, cloaks the truth of existence, leading us to chase after ephemeral desires and fleeting happiness. Yet, through the light of self-awareness and spiritual awakening, we can transcend the illusions of Maya and discover the eternal truth that resides within.

In dreams, Maya weaves intricate narratives of desire and fantasy, captivating the mind with its seductive illusions. Like a mirage in the desert, dreams tantalize us with promises of fulfillment, only to dissolve into the ether upon awakening. Yet, hidden within the realm of dreams lies the key to unlocking the mysteries of the subconscious, where our deepest desires and fears are laid bare.

Desires, fueled by Maya's allure, drive much of human behavior, leading us to pursue wealth, success, fame, and love in the quest for happiness. Yet, the objects of our desires are but fleeting illusions, transient shadows that vanish upon closer inspection. Maya convinces us that happiness lies in the external world, yet true fulfillment can only be found within the depths of our own being.

Love, the most potent illusion of all, holds the promise of ultimate happiness and fulfillment. Maya casts a spell of enchantment over our hearts, blinding us to the imperfections and complexities of human relationships. Yet, as the illusion of love fades and reality sets in, we are confronted with the inherent imperfections of ourselves and others, leading to disillusionment and heartache.

Ultimately, the pursuit of happiness, the Holy Grail of human existence, is shrouded in the illusion of Maya. Yet, through self-awareness, inner peace, and spiritual awakening, we can pierce through the veil of illusion and discover the eternal bliss that resides within. As the Sanskrit shloka implores, may we be led from falsehood to truth, from darkness to light, and from death to immortality, finding peace, peace, and peace eternal.

ध्यान का सागर

ध्यान जो करता है, वो 'मन' रहित हो जाता है,
जैसे हर नदी सागर की ओर बढ़ती है बिना नक्शे, बिना साथी के।
हर नदी, बिन किसी अपवाद के, अंततः सागर से मिलती है,
हर ध्यान, बिन किसी अपवाद के, अंततः 'मन' रहित स्थिति को पाता है।

ध्यान का मार्ग कठिन नहीं, सहज है,
जैसे नदी का बहाव स्वाभाविक, अनंत है।
बिना किसी मार्गदर्शक के, बिना किसी संकेत के,
हर नदी अपनी मंजिल पाती है, हर ध्यान 'मन' की सीमाएं मिटाता है।

ध्यान में डूबो, जैसे नदी सागर में मिलती है,
अपनी सीमाओं को छोड़, अंतहीन शांति को पाती है।
हर सोच, हर विचार, सब छूट जाते हैं,
ध्यान की गहराई में 'मन' से परे हो जाते हैं।

सागर की गहराई में, नदी खुद को खो देती है,
ध्यान की अवस्था में, 'मन' खुद को भुला देती है।
शून्य की अवस्था, शांति की पराकाष्ठा,
ध्यान के सागर में, 'मन' की अनंत यात्रा।

ध्यान की यात्रा


ध्यान हमें निश्चल मन की ओर ले जाता है,
जैसे हर नदी महासागर की ओर बहती है,
बिना किसी नक्शे, बिना किसी मार्गदर्शक के।
हर नदी, बिना अपवाद, अंततः महासागर तक पहुँचती है।

हर ध्यान, बिना अपवाद, अंततः निश्चल मन की स्थिति तक पहुँचता है।
ध्यान की यह यात्रा सहज है, 
बिना किसी बंधन, बिना किसी रोक-टोक के।
जैसे नदी अपनी राह खुद ब खुद चुन लेती है।

ध्यान की इस यात्रा में कोई दिशानिर्देश नहीं,
बस समर्पण की आवश्यकता है।
जैसे नदी अपने प्रवाह में आत्मसात हो जाती है,
वैसे ही ध्यान में मन की स्थिरता पाई जाती है।

महासागर की तरह, निश्चल मन की स्थिति भी विशाल और गहरी है,
जहां सभी चिंताएं, सभी विचार विलीन हो जाते हैं।
ध्यान की यात्रा हमें इस शांति की ओर ले जाती है,
जहां न कोई लक्ष्य है, न कोई मंज़िल, सिर्फ शुद्ध अस्तित्व है।

ध्यान का मार्ग


ध्यान अवश्य ही निर्विचार की ओर ले जाता है,
जैसे हर नदी बिना नक्शों के, बिना मार्गदर्शकों के
सागर की ओर बढ़ती है।
हर नदी, बिना किसी अपवाद के,
अंततः सागर तक पहुँचती है।
हर ध्यान, बिना किसी अपवाद के,
अंततः निर्विचार की अवस्था तक पहुँचता है।

समय की रेखा

समय की रेखा पर चलते हैं हम,
मंजिलें पास, पर लगती हैं कम।
दोपहर की धूप में तपते हैं पथ,
मिटेगी कब ये कड़ी मेहनत की थकन?

हर क्षण को गिनते हैं, बढ़ते हैं कदम,
उम्मीद की किरणों में बुनते हैं सपन।
समय की चाल से होड़ लगाते,
सपनों की ऊँचाईयों को छूने जाते।

डेडलाइन की सीमा में बंधे हैं हम,
पर सपनों की उड़ान से नहीं थमें।
कर्मवीर बन, संघर्ष की राह पर,
हर चुनौती को अपनाते हैं हम।

समय के साथ कदम से कदम मिलाकर,
जीतेंगे हर डेडलाइन, न रुकेंगे हारकर।
यह संग्राम अनंत, पर मन में है ठान,
हर मुश्किल पार कर, करेंगे नाम महान।

वासना की प्रकृति


वासना का अस्तित्व और उसकी समाप्ति हमारे मनोविज्ञान और आत्मविकास का महत्वपूर्ण विषय है। वासना की प्रकृति ऐसी है कि यह तात्कालिक होती है और जैसे ही किसी वस्तु या व्यक्ति को पाने की इच्छा पूर्ण होती है, उसका आकर्षण घटने लगता है। वासना को समझना और उसे नियंत्रित करना आत्मविकास का मार्ग खोलता है। संस्कृत शास्त्रों में इस विषय पर गहराई से चर्चा की गई है, जो हमें वासना को साधने के मार्ग में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

वासना की प्रवृत्ति

वासना की विशेषता यह है कि यह एक ऐसी ऊर्जा है जो किसी लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ती है। जैसे ही वह लक्ष्य प्राप्त होता है, ऊर्जा का उत्साह समाप्त हो जाता है। इस प्रवृत्ति को समझने के लिए भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "ध्यानात् विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते।।"
(भगवद्गीता 2.62)



अर्थात, विषयों का ध्यान करते रहने से उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से वासना उत्पन्न होती है, और वासना से क्रोध की उत्पत्ति होती है। यहाँ श्रीकृष्ण वासना को चेतना का एक ऐसा पहलू बताते हैं, जो अंततः नकारात्मक प्रभावों की ओर ले जाता है, यदि इसका सही रूप में प्रबंधन न किया जाए।

वासना का चरित्र बढ़ने और घटने वाला है। जब तक प्राप्ति नहीं होती, वासना का उबाल बढ़ता रहता है। जैसे ही वांछित वस्तु प्राप्त होती है, वासना शांत होती है, और कभी-कभी अगले आकर्षण की ओर बढ़ जाती है। इस प्रवृत्ति को समझते हुए ओशो ने कहा कि "वासना का असली स्वभाव अधूरापन है।"

वासना की उत्पत्ति का कारण

वासना का जन्म मनुष्य की अधूरी इच्छाओं से होता है। यह हमारे मन और विचारों की एक अवस्था है, जिसमें हमें लगता है कि किसी बाहरी वस्तु की प्राप्ति से ही हमारी पूर्णता होगी। यह एक भ्रम है, जिसे संतोष और आंतरिक सुख के माध्यम से समझा जा सकता है। वासना का स्वभाव केवल तब तक सक्रिय रहता है, जब तक हमें वह वस्तु प्राप्त नहीं होती।

> "असन्तोषो हि कामानां विकारः प्रथमः स्मृतः।"
(मनुस्मृति 7.45)



अर्थात, असंतोष ही कामनाओं का पहला विकार है। यह असंतोष ही मनुष्य को अधूरेपन का अहसास कराता है, जिससे उसकी वासना की उत्पत्ति होती है। यही असंतोष उसे बाहर की वस्तुओं और लोगों में खुशी खोजने के लिए प्रेरित करता है, परन्तु यह एक अंतहीन चक्र है।

वासना पर नियंत्रण कैसे करें

वासना पर विजय पाने के लिए आत्म-निरीक्षण और ध्यान को महत्वपूर्ण माना गया है। आत्म-निरीक्षण से मनुष्य अपने भीतर की अधूरी इच्छाओं और असंतोष के कारणों को समझ सकता है।

> "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।"
(अष्टावक्र गीता 1.11)



अर्थात, मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। यदि मन शांत हो, तो वासना स्वतः ही समाप्त हो जाती है। वासना की वास्तविकता को जानकर मनुष्य धीरे-धीरे उसे अपने नियंत्रण में कर सकता है।

ध्यान और आत्म-निरीक्षण: ध्यान वासना को नियंत्रित करने का एक प्रभावी तरीका है। जब हम ध्यान करते हैं, तो हमारे मन में उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ और वासनाएँ धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं। ध्यान का उद्देश्य यह नहीं है कि हम अपनी वासनाओं को दबा दें, बल्कि उन्हें स्वाभाविक रूप से समाप्त कर दें। ध्यान के माध्यम से हम अपने मन को स्थिर कर सकते हैं और उन इच्छाओं से मुक्ति पा सकते हैं जो हमारे शांति और संतोष में बाधा डालती हैं।

> "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।"
(योगसूत्र 1.2)



अर्थात, योग मन की वृत्तियों का निरोध है। जब मन शांत और स्थिर हो जाता है, तब इच्छाएँ, जो वासना का मूल कारण हैं, अपने आप समाप्त हो जाती हैं।

वासना और प्रेम का अंतर

वासना का सम्बन्ध केवल स्वार्थ से है, जबकि प्रेम नि:स्वार्थ होता है। वासना प्राप्ति और भोग पर केंद्रित होती है, जबकि प्रेम समर्पण और त्याग का प्रतीक है। प्रेम में व्यक्ति की संतुष्टि दूसरों के सुख में होती है, जबकि वासना में सुख की खोज केवल स्वयं के लिए होती है।

> "काम एव सदा कर्तुं रागं कुरुते जन्तुषु।"



वासना केवल स्वार्थ में लिप्त रहती है, जबकि प्रेम त्याग और सेवा में संतोष पाता है। प्रेम में आनंद की अनुभूति होती है, जबकि वासना में प्यास और बेचैनी।



वासना को समझना और उस पर विजय पाना हर साधक के जीवन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है। वासना का समाधान केवल आत्म-निरीक्षण, ध्यान, और योग से संभव है। जब हम अपने भीतर संतोष और प्रेम की खोज करते हैं, तो बाहरी आकर्षण स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं, और हम आंतरिक शांति को प्राप्त करते हैं। वासना का अंत ही सच्चे आनंद और मुक्ति का मार्ग है।

अतः, वासना की अनन्त प्यास को शांत करने का एकमात्र उपाय है आत्म-निरीक्षण, क्योंकि उसी से सच्चे संतोष का अनुभव किया जा सकता है।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...