ध्यान अवश्य ही निर्विचार की ओर ले जाता है,
जैसे हर नदी बिना नक्शों के, बिना मार्गदर्शकों के
सागर की ओर बढ़ती है।
हर नदी, बिना किसी अपवाद के,
अंततः सागर तक पहुँचती है।
हर ध्यान, बिना किसी अपवाद के,
अंततः निर्विचार की अवस्था तक पहुँचता है।
कुछ लोग यूँ ही चले जाते हैं, जैसे धूप में कोई पेड़ कट जाए। मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ, जहाँ कभी उसकी छाँव थी। वो बोलता नहीं अब, पर उसकी चुप्प...
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