ध्यान अवश्य ही निर्विचार की ओर ले जाता है,
जैसे हर नदी बिना नक्शों के, बिना मार्गदर्शकों के
सागर की ओर बढ़ती है।
हर नदी, बिना किसी अपवाद के,
अंततः सागर तक पहुँचती है।
हर ध्यान, बिना किसी अपवाद के,
अंततः निर्विचार की अवस्था तक पहुँचता है।
मैं, जो अच्छा कहलाता, मैं, जो बुरा कहलाता, मैं सत्य का अंश, मैं मिथ्या का नाता। दो ध्रुवों के बीच, मेरा अस्तित्व छिपा, मैं ही प्रकाश, मैं ही...
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