The Golden Key

स्वर्ण कुंजी



मैंने जीवनभर खोजा, दर-दर भटका,
कभी तीर्थों की धूल में, कभी जंगल की छाँव में।
कभी ग्रंथों के पन्नों में, कभी गुरुओं के चरणों में,
पर वो द्वार, जहाँ शाश्वत सत्य बसता है —
वो खुला ही नहीं।

हर बार लगा, शायद अगली यात्रा में मिलेगा,
शायद अगली तपस्या, अगला व्रत कुछ फल देगा।
पर हर मोड़ पर वही खालीपन, वही सन्नाटा,
जैसे कोई मौन रहस्य मुझे देख कर मुस्कुरा रहा हो।

और एक दिन,
जब थककर बैठा था स्वयं की ही परछाई में,
तब सहसा हृदय में कोई स्पंदन जागा —
एक आवाज़, भीतर से —
"जिसे तू बाहर ढूंढ रहा है, वो भीतर है,
तेरे हृदय के केंद्र में ही वो द्वार है,
और कुंजी?
वो तो सदा तेरे पास थी, तेरे भीतर ही सोई थी।"

मैं स्तब्ध हुआ —
क्या ये सम्भव है, कि मैं ही पहरेदार और मैं ही यात्री?
मैं ही द्वार और मैं ही चाबी?

तब मैंने आँखें मूँद लीं —
बाहरी जगत से ध्यान हटा,
भीतर उतरा — गहराइयों में, मौन की सुरंगों में।
वहाँ एक ज्योति जल रही थी —
निर्मल, शांत, साक्षात दिव्यता का दीप।

मैंने उस कुंजी को देखा —
वो प्रेम थी, विश्वास थी, मौन था।
वो क्षमा थी, समर्पण थी, सत्य का प्रकाश थी।

जैसे ही उसे पकड़ा,
वो द्वार जो जन्मों से बंद था,
धीरे से खुल गया —
न कोई आवाज़, न कोई ध्वनि —
बस शांति की अनहद धुन।

उस पार क्या था?
न समय था, न मृत्यु —
केवल एक चिरंतन आलोक,
जिसमें मैं विलीन हो गया।

अब मैं जान गया हूँ —
दुनिया की भीड़ में नहीं,
अपने ही हृदय में वो सब कुछ है
जिसकी मुझे तलाश थी।

तो हे पथिक!
अगर तू भी खोज रहा है सत्य का द्वार,
तो मत भटको बाहरी गलियों में,
बैठ शांत होकर अपने अंतर में,
क्योंकि स्वर्ण कुंजी तेरे ही पास है —
बस जागने की देर है।
बस भीतर उतरने की देर है।
बस स्वयं से मिलने की देर है।