मौन मेरा उत्तर है


(एक आत्मकाव्य)

मुझे कहना था बहुत कुछ,
पर मैंने चुना… चुप रहना।
हर ताने की तलवार को,
अपने भीतर ही टूटते देखा मैंने।

वो कहते थे —
"तू कुछ नहीं कर पाएगा",
मैं सुनता रहा... पर मन में
एक दीप जलता रहा —
"मैं दिखाऊँगा, जवाब नहीं दूँगा।"

अपमान के शब्द,
जैसे बाण थे जहर में डूबे हुए,
पर मैं वृक्ष था सहनशील,
हर वार को अपनी छाल पर सहता रहा।

मैंने नहीं दी आवाज,
मैंने दी केवल दिशा।
जहाँ वो चीखते रहे,
मैं बढ़ता रहा निशा।

क्योंकि मुझे समझ में आ गया था —
कि अपमान का उद्देश्य
मेरी आत्मा को हिलाना नहीं,
मुझे भटकाना था…

मगर मैं मार्ग से नहीं डिगा।
मैंने उन्हें हराया —
ना गुस्से से,
ना बहस से,
बल्कि अपनी चुप्पी और
उत्कर्ष से।

जब उन्होंने देखा
कि मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ,
जब उन्हें ये पता चला
कि मेरी सफलता अब उनकी सोच से परे है,
तब उनकी जुबान थम गई।

मैं मौन बना,
क्योंकि मेरा मौन मेरा प्रतिशोध था।
मैं शांत रहा,
क्योंकि मेरी सफलता मेरी आवाज़ थी।

अब जब वो मुझे ऊँचाईयों पर देखते हैं,
तो उनके शब्द खुद ही बिखर जाते हैं।
और मैं… मैं अब भी कुछ नहीं कहता,
बस चलता हूँ —
मुस्कुराता हूँ —
और जीतता हूँ।


---

"मौन मेरा उत्तर है,
और सफलता मेरा संवाद।
जहाँ तिरस्कार थमते हैं,
वहीं से शुरू होता है मेरा उत्थान..."


---



No comments:

Post a Comment

Thanks