हर दिल में बस, प्यार ही भर देता है।

बूँदें गिरती हैं, धरती मुस्कुराती है,
बादलों की चादर से सजी, ये शाम सुहानी है।

फूलों की महक में, दिल खो जाता है,
हर लम्हा यहाँ, प्रेम का गीत गाता है।

नदियाँ बहती हैं, रागिनी सुनाती हैं,
पर्वतों की ऊँचाई, सपनों को बुलाती है।

चाँदनी रात में, तारे सजते हैं,
हर दिशा में बस, खुशियाँ ही बिखरती हैं।

ये प्रकृति का खेल, मन मोह लेता है,
हर दिल में बस, प्यार ही भर देता है।

"Chasing Dreams: From College to Mumbai's Film Industry"

After successfully completing my college education, I am now embarking on a new journey towards achieving my dream of becoming a script writer and making films in Mumbai. This decision has not been an easy one, as I am aware of the challenges and competition that exist in the film industry. However, I am determined to pursue my passion and work hard to make my dreams a reality.


My journey towards becoming a script writer began during my college years, when I discovered my love for storytelling and filmmaking. I started experimenting with writing short scripts and creating short films, which helped me develop my skills and gain confidence in my abilities. I also took advantage of opportunities to attend film festivals, workshops, and seminars, which allowed me to learn from industry professionals and network with like-minded individuals.

Now that I have graduated from college, I am ready to take the next step in my career by moving to Mumbai, which is known as the hub of the Indian film industry. This move will not only provide me with access to more opportunities but also allow me to immerse myself in the culture and energy of the city. I am excited to learn from experienced writers and directors, collaborate with talented actors and crew members, and contribute to the vibrant and dynamic film community in Mumbai.

Of course, this journey will not be without its challenges. The competition in the film industry is fierce, and it can be difficult to break into the business as a newcomer. However, I am confident in my skills and determination, and I am committed to working hard, learning from others, and staying true to my vision as a writer and filmmaker.

In short, my journey towards becoming a script writer and making films in Mumbai is both exciting and challenging. But with hard work, dedication, and a little bit of luck, I am confident that I can achieve my dreams and make a meaningful contribution to the world of cinema. 

नक्सलवाद: एक वैचारिक और जमीनी संघर्ष




नमस्कार, मैं वर्तमान में कम्युनिस्ट विचारधारा की पढ़ाई कर रहा हूँ। नक्सलवाद पर मेरा रिसर्च चल रहा है और उसी संदर्भ में यह ब्लॉग लिख रहा हूँ।


#### नक्सली हिंसा: जड़ों से लेकर वर्तमान तक


26 मई 2013 को छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक बड़ा नक्सली हमला हुआ, जिसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं समेत 23 लोगों की मौत हुई। यह घटना एक बार फिर नक्सली हिंसा की गंभीरता को सामने लाती है। लेकिन यह समस्या नई नहीं है। इसकी शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई, जिसके बाद इस आंदोलन को "नक्सलवाद" का नाम मिला।  नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई। इसके बाद से, इस आंदोलन ने धीरे-धीरे देश के कई हिस्सों में अपने पांव पसार लिए हैं। माना जाता है कि भारत के कुल छह सौ से अधिक जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे हैं। नक्सलियों का मुख्य दावा है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है। वे जमीन के अधिकार और संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

नक्सलवाद की जड़ें समाज में गहराई से फैली हुई हैं, विशेषकर उन इलाकों में जहाँ आदिवासी और गरीब जनता दशकों से अपनी आवाज़ को दबा महसूस करती आई है। नक्सली स्वयं को उन समुदायों का रक्षक बताते हैं जिन्हें सरकारी नीतियों ने हाशिए पर रखा है। उनका दावा है कि वे ज़मीन के अधिकार, संसाधनों के वितरण, और आदिवासी समाज की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए लड़ रहे हैं।


#### संघर्ष के प्रमुख मामले


साल 2010 में छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में सुरक्षाबलों पर एक घातक हमला हुआ, जिसमें 76 जवान मारे गए। यह घटना नक्सलियों के हिंसक संघर्ष की पराकाष्ठा को दर्शाती है। इसी तरह, 2009 में पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में नक्सलियों ने एक स्वतंत्र क्षेत्र की घोषणा कर दी थी, जिसे कुछ महीनों बाद सुरक्षाबलों ने फिर से अपने नियंत्रण में लिया। 


वहीं, 2012 में माओवादियों ने सुकमा में तैनात जिला अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण किया। यह घटनाएँ नक्सलियों की क्रूरता और उनकी रणनीतिक दक्षता को दर्शाती हैं


2007 और 2010 के बीच कई ऐसी घटनाएँ घटीं, जहाँ नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर भीषण हमले किए। यह लड़ाई कई बार राज्य और नक्सलियों के बीच के वैचारिक मतभेद को भी सामने लाती है।


#### नक्सलवाद और राजनीतिक विचारधारा


नक्सलवाद सिर्फ एक हिंसक विद्रोह नहीं है, बल्कि एक वैचारिक संघर्ष भी है। नक्सलवादी माओवादी विचारधारा को मानते हैं और उनके अंतिम उद्देश्य में 'एक कम्युनिस्ट समाज' की स्थापना करना शामिल है। हालांकि, यह विचारधारा और इसकी क्रियावली शहरी क्षेत्रों में प्रचलित नहीं है और उन्हें ज्यादातर हिंसक और चरमपंथी संगठन के रूप में देखा जाता है।  उनका प्रभाव आदिवासी इलाकों और जंगलों तक ही सीमित है। सरकार इस बात को लेकर दुविधा में है कि उन्हें नक्सलियों से निपटने के लिए सेना को तैनात करना चाहिए या अन्य तरीके अपनाने चाहिए।


सरकार इस संघर्ष को कैसे संभाले, इसे लेकर असमंजस में रही है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि नक्सलियों को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त है, जिससे उनकी गतिविधियाँ तेज होती हैं। इस समर्थन के पीछे की वजह यह मानी जाती है कि ये नक्सली उन लोगों के लिए आवाज़ उठाते हैं जिन्हें सरकारी नीतियों ने उपेक्षित किया है।


#### आम जनता: सबसे बड़ा शिकार


सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2012 में नक्सली हिंसा में 409 लोग मारे गए थे, जिसमें 113 सुरक्षाकर्मी और 296 आम नागरिक शामिल थे। साल 2010 में यह संख्या 1005 तक पहुँच गई थी। इससे साफ है कि नक्सली और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे संघर्ष में सबसे बड़ा नुकसान आम जनता को हो रहा है। आम नागरिक दोनों ही पक्षों के निशाने पर रहते हैं। 


। सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच चल रहे संघर्ष में आम नागरिक दोनों पक्षों के निशाने पर रहते हैं। जहां सुरक्षा बलों पर आरोप है कि उन्होंने नक्सली कहकर आम लोगों को निशाना बनाया, वहीं माओवादियों पर भी आरोप हैं कि उन्होंने पुलिस का मुखबिर कहकर कई लोगों की हत्या की।



#### नक्सलियों का राजनीतिक बंदियों का दर्जा


2013 में एक बड़ी बहस ने जन्म लिया जब पश्चिम बंगाल की एक अदालत ने नक्सलियों को 'राजनीतिक बंदी' का दर्जा दिया। इससे सवाल उठने लगे कि राजनीतिक गतिविधियों और हिंसक चरमपंथ के बीच की सीमा रेखा क्या होनी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति एक वैचारिक आंदोलन का हिस्सा है, तो क्या उसे एक अपराधी माना जाना चाहिए?


यह प्रश्न विचारणीय है, खासकर तब जब नक्सलवाद जैसे संघर्षों में हिंसा और राजनीतिक विचारधारा का मिश्रण हो। कुछ लोग यह मानते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने राजनीतिक मकसद के लिए हथियार उठाता है, तो यह जायज हो सकता है। 


#### नक्सली संघर्ष का भविष्य


वर्तमान में, नक्सलवाद भारत के 600 से अधिक जिलों में से करीब एक तिहाई पर असर डाल रहा है। छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं। सुरक्षा बलों ने कई नए इलाकों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, जिससे माओवादियों को अपने ठिकाने बदलने पड़े हैं। 


वहीं, 2013 का साल विशेष महत्व रखता है क्योंकि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। नक्सल प्रभावित इलाकों में चुनाव कराना एक युद्ध लड़ने के समान माना जाता है। ऐसे में यह देखना होगा कि सरकार और माओवादियों के बीच चल रहे इस संघर्ष का भविष्य क्या होता है और आम जनता को इस हिंसा से राहत कब मिलेगी।





### निष्कर्ष



नक्सलवाद एक जटिल समस्या है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों का मिश्रण है। यह न सिर्फ एक वैचारिक संघर्ष है, बल्कि एक वास्तविकता भी है जिससे लाखों लोग प्रभावित हैं। जब तक सरकार और नक्सली मिलकर कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं ढूँढते, तब तक यह समस्या यूँ ही बनी रहेगी।


नक्सलवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा को लेकर कई मतभेद और दृष्टिकोण सामने आते हैं। 2011 की फिल्म *J. Edgar* में जिस तरह से कम्युनिस्ट विचारधारा को एक बीमारी के रूप में दर्शाया गया है, वह कुछ लोगों की सोच को दर्शाता है। कई लोग मानते हैं कि यह विचारधारा लोकतांत्रिक संरचनाओं के लिए हानिकारक है और इसे कैंसर की तरह समझा जा सकता है, जो धीरे-धीरे पूरे समाज को प्रभावित करती है। भारत में पिछले 50 सालों में नक्सलवाद ने जिस तरह से अपनी जड़ें फैलाई हैं, उसे कुछ लोग एक लाइलाज बीमारी की तरह मानते हैं।


कम्युनिस्ट विचारधारा का उद्देश्य मूल रूप से समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना है, लेकिन इसके अमल में आने वाले तरीके अक्सर हिंसा और अराजकता को जन्म देते हैं, जैसा कि नक्सलवाद के संदर्भ में देखा गया है। यह आंदोलन, विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में, राज्य और उसके संस्थानों के प्रति अविश्वास पैदा कर चुका है, और कई बार यह देखा गया है कि इस विचारधारा के समर्थक लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करते हुए अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं।


अगर इसे एक कैंसर के रूप में देखा जाए, तो यह एक ऐसी बीमारी है, जो बार-बार उभरकर आती है और देश के लोकतंत्र को कमजोर करती है। जैसे कैंसर का उपचार आसान नहीं होता, वैसे ही नक्सलवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा से उपजी समस्याओं का हल भी सीधा और सरल नहीं है। इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो कि समाज के विकास और न्याय को ध्यान में रखते हुए हो।


भारत में नक्सलवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव केवल एक सुरक्षा समस्या नहीं, बल्कि यह सामाजिक असंतोष और आर्थिक असमानता से भी जुड़ा हुआ है। जब तक इन मुद्दों का सही समाधान नहीं निकाला जाता, यह "कैंसर" भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करता रहेगा।


लेकिन यह स्पष्ट है कि इसे सिर्फ एक सुरक्षा समस्या के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को समझना जरूरी है। मैं दीपक डोभाल, एक राइटर और छात्र के रूप में, इस विषय पर गहराई से अध्ययन कर रहा हूँ। मेरा मानना है कि नक्सलवाद पर विचार करते समय हमें इसकी जड़ें, उत्पत्ति और स्थानीय संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए।


भविष्य में, नक्सल प्रभावित राज्यों में होने वाले चुनावों पर सभी की नज़रें टिकी रहेंगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार और माओवादी इस चुनौती का सामना कैसे करते हैं और क्या कोई समाधान निकलता है।












### नक्सलवाद: एक वैचारिक और जमीनी संघर्ष


नमस्कार, मैं वर्तमान में कम्युनिस्ट विचारधारा की पढ़ाई कर रहा हूँ। नक्सलवाद पर मेरा रिसर्च चल रहा है और उसी संदर्भ में यह ब्लॉग लिख रहा हूँ।

#### नक्सली हिंसा: जड़ों से लेकर वर्तमान तक

26 मई 2013 को छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक बड़ा नक्सली हमला हुआ, जिसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं समेत 23 लोगों की मौत हुई। यह घटना एक बार फिर नक्सली हिंसा की गंभीरता को सामने लाती है। लेकिन यह समस्या नई नहीं है। इसकी शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई, जिसके बाद इस आंदोलन को "नक्सलवाद" का नाम मिला। नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई। इसके बाद से, इस आंदोलन ने धीरे-धीरे देश के कई हिस्सों में अपने पांव पसार लिए हैं। माना जाता है कि भारत के कुल छह सौ से अधिक जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे हैं। नक्सलियों का मुख्य दावा है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है। वे जमीन के अधिकार और संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
नक्सलवाद की जड़ें समाज में गहराई से फैली हुई हैं, विशेषकर उन इलाकों में जहाँ आदिवासी और गरीब जनता दशकों से अपनी आवाज़ को दबा महसूस करती आई है। नक्सली स्वयं को उन समुदायों का रक्षक बताते हैं जिन्हें सरकारी नीतियों ने हाशिए पर रखा है। उनका दावा है कि वे ज़मीन के अधिकार, संसाधनों के वितरण, और आदिवासी समाज की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए लड़ रहे हैं।

#### संघर्ष के प्रमुख मामले

साल 2010 में छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में सुरक्षाबलों पर एक घातक हमला हुआ, जिसमें 76 जवान मारे गए। यह घटना नक्सलियों के हिंसक संघर्ष की पराकाष्ठा को दर्शाती है। इसी तरह, 2009 में पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में नक्सलियों ने एक स्वतंत्र क्षेत्र की घोषणा कर दी थी, जिसे कुछ महीनों बाद सुरक्षाबलों ने फिर से अपने नियंत्रण में लिया। 

वहीं, 2012 में माओवादियों ने सुकमा में तैनात जिला अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण किया। यह घटनाएँ नक्सलियों की क्रूरता और उनकी रणनीतिक दक्षता को दर्शाती हैं

2007 और 2010 के बीच कई ऐसी घटनाएँ घटीं, जहाँ नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर भीषण हमले किए। यह लड़ाई कई बार राज्य और नक्सलियों के बीच के वैचारिक मतभेद को भी सामने लाती है।

#### नक्सलवाद और राजनीतिक विचारधारा

नक्सलवाद सिर्फ एक हिंसक विद्रोह नहीं है, बल्कि एक वैचारिक संघर्ष भी है। नक्सलवादी माओवादी विचारधारा को मानते हैं और उनके अंतिम उद्देश्य में 'एक कम्युनिस्ट समाज' की स्थापना करना शामिल है। हालांकि, यह विचारधारा और इसकी क्रियावली शहरी क्षेत्रों में प्रचलित नहीं है और उन्हें ज्यादातर हिंसक और चरमपंथी संगठन के रूप में देखा जाता है। उनका प्रभाव आदिवासी इलाकों और जंगलों तक ही सीमित है। सरकार इस बात को लेकर दुविधा में है कि उन्हें नक्सलियों से निपटने के लिए सेना को तैनात करना चाहिए या अन्य तरीके अपनाने चाहिए।

सरकार इस संघर्ष को कैसे संभाले, इसे लेकर असमंजस में रही है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि नक्सलियों को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त है, जिससे उनकी गतिविधियाँ तेज होती हैं। इस समर्थन के पीछे की वजह यह मानी जाती है कि ये नक्सली उन लोगों के लिए आवाज़ उठाते हैं जिन्हें सरकारी नीतियों ने उपेक्षित किया है।

#### आम जनता: सबसे बड़ा शिकार

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2012 में नक्सली हिंसा में 409 लोग मारे गए थे, जिसमें 113 सुरक्षाकर्मी और 296 आम नागरिक शामिल थे। साल 2010 में यह संख्या 1005 तक पहुँच गई थी। इससे साफ है कि नक्सली और सुरक्षा बलों के बीच चल रहे संघर्ष में सबसे बड़ा नुकसान आम जनता को हो रहा है। आम नागरिक दोनों ही पक्षों के निशाने पर रहते हैं। 

। सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच चल रहे संघर्ष में आम नागरिक दोनों पक्षों के निशाने पर रहते हैं। जहां सुरक्षा बलों पर आरोप है कि उन्होंने नक्सली कहकर आम लोगों को निशाना बनाया, वहीं माओवादियों पर भी आरोप हैं कि उन्होंने पुलिस का मुखबिर कहकर कई लोगों की हत्या की।


#### नक्सलियों का राजनीतिक बंदियों का दर्जा

2013 में एक बड़ी बहस ने जन्म लिया जब पश्चिम बंगाल की एक अदालत ने नक्सलियों को 'राजनीतिक बंदी' का दर्जा दिया। इससे सवाल उठने लगे कि राजनीतिक गतिविधियों और हिंसक चरमपंथ के बीच की सीमा रेखा क्या होनी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति एक वैचारिक आंदोलन का हिस्सा है, तो क्या उसे एक अपराधी माना जाना चाहिए?

यह प्रश्न विचारणीय है, खासकर तब जब नक्सलवाद जैसे संघर्षों में हिंसा और राजनीतिक विचारधारा का मिश्रण हो। कुछ लोग यह मानते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने राजनीतिक मकसद के लिए हथियार उठाता है, तो यह जायज हो सकता है। 

#### नक्सली संघर्ष का भविष्य

वर्तमान में, नक्सलवाद भारत के 600 से अधिक जिलों में से करीब एक तिहाई पर असर डाल रहा है। छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं। सुरक्षा बलों ने कई नए इलाकों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, जिससे माओवादियों को अपने ठिकाने बदलने पड़े हैं। 

वहीं, 2013 का साल विशेष महत्व रखता है क्योंकि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। नक्सल प्रभावित इलाकों में चुनाव कराना एक युद्ध लड़ने के समान माना जाता है। ऐसे में यह देखना होगा कि सरकार और माओवादियों के बीच चल रहे इस संघर्ष का भविष्य क्या होता है और आम जनता को इस हिंसा से राहत कब मिलेगी।




### निष्कर्ष


नक्सलवाद एक जटिल समस्या है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों का मिश्रण है। यह न सिर्फ एक वैचारिक संघर्ष है, बल्कि एक वास्तविकता भी है जिससे लाखों लोग प्रभावित हैं। जब तक सरकार और नक्सली मिलकर कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं ढूँढते, तब तक यह समस्या यूँ ही बनी रहेगी। 


नक्सलवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा को लेकर कई मतभेद और दृष्टिकोण सामने आते हैं। 2011 की फिल्म *J. Edgar* में जिस तरह से कम्युनिस्ट विचारधारा को एक बीमारी के रूप में दर्शाया गया है, वह कुछ लोगों की सोच को दर्शाता है। कई लोग मानते हैं कि यह विचारधारा लोकतांत्रिक संरचनाओं के लिए हानिकारक है और इसे कैंसर की तरह समझा जा सकता है, जो धीरे-धीरे पूरे समाज को प्रभावित करती है। भारत में पिछले 50 सालों में नक्सलवाद ने जिस तरह से अपनी जड़ें फैलाई हैं, उसे कुछ लोग एक लाइलाज बीमारी की तरह मानते हैं।

कम्युनिस्ट विचारधारा का उद्देश्य मूल रूप से समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना है, लेकिन इसके अमल में आने वाले तरीके अक्सर हिंसा और अराजकता को जन्म देते हैं, जैसा कि नक्सलवाद के संदर्भ में देखा गया है। यह आंदोलन, विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में, राज्य और उसके संस्थानों के प्रति अविश्वास पैदा कर चुका है, और कई बार यह देखा गया है कि इस विचारधारा के समर्थक लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करते हुए अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं।

अगर इसे एक कैंसर के रूप में देखा जाए, तो यह एक ऐसी बीमारी है, जो बार-बार उभरकर आती है और देश के लोकतंत्र को कमजोर करती है। जैसे कैंसर का उपचार आसान नहीं होता, वैसे ही नक्सलवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा से उपजी समस्याओं का हल भी सीधा और सरल नहीं है। इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो कि समाज के विकास और न्याय को ध्यान में रखते हुए हो।

भारत में नक्सलवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव केवल एक सुरक्षा समस्या नहीं, बल्कि यह सामाजिक असंतोष और आर्थिक असमानता से भी जुड़ा हुआ है। जब तक इन मुद्दों का सही समाधान नहीं निकाला जाता, यह "कैंसर" भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करता रहेगा।


 लेकिन यह स्पष्ट है कि इसे सिर्फ एक सुरक्षा समस्या के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को समझना जरूरी है। मैं दीपक डोभाल, एक राइटर और छात्र के रूप में, इस विषय पर गहराई से अध्ययन कर रहा हूँ। मेरा मानना है कि नक्सलवाद पर विचार करते समय हमें इसकी जड़ें, उत्पत्ति और स्थानीय संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए।

भविष्य में, नक्सल प्रभावित राज्यों में होने वाले चुनावों पर सभी की नज़रें टिकी रहेंगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार और माओवादी इस चुनौती का सामना कैसे करते हैं और क्या कोई समाधान निकलता है।















एक कहानी, कव्वे की जबानी


                          एक कहानी, कव्वे की जबानी

एक दिन एक कव्वे के बच्चे ने कहा की हमने लगभग हर चौपाय जीव का मांस खाया है. मगर आजतक दो पैर पर चलने वाले जीव का मांस नहीं खाया है. पापा कैसा होता है इंसानों का मांस पापा कव्वे ने कहा मैंने जीवन में तीन बार खाया है, बहुत स्वादिष्ट होता है. कव्वे के बच्चे ने कहा मुझे भी खाना है... कव्वे ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा चलो खिला देता हूँ. बस मैं जैसा कह रहा हूँ वैसे ही करना... मैंने ये तरीका अपने पुरखों से सीखा है. कव्वे ने अपने बेटे को एक जगह रुकने को कहा और थोड़ी देर बाद मांस का दो टुकड़ा उठा लाया. कव्वे के बच्चे ने खाया तो कहा की ये तो सूअर के मांस जैसा लग रहा है. पापा ने कहा अरे ये खाने के लिए नहीं है, इस से ढेर सारा मांस बनाया जा सकता है. जैसे दही जमाने के लिए थोड़ा सा दही दूध में डाल कर छोड़ दिया जाता है वैसे ही इसे छोड़ कर आना है. बस देखना कल तक कितना स्वादिष्ट मांस मिलेगा, वो भी मनुष्य का. बच्चे को बात समझ में नहीं आई मगर वो पापा का जादू देखने के लिए उत्सुक था. पापा ने उन दो मांस के टुकड़ों में से एक टुकड़ा एक मंदिर में और दूसरा पास की एक मस्जिद में टपका दिया. तबतक शाम हो चली थी, पापा ने कहा अब कल सुबह तक हम सभी को ढेर सारा दुपाया जानवरों का मांस मिलने वाला है. सुबह सवेरे पापा और बच्चे ने देखा तो सचमुच गली गली में मनुष्यों की कटी और जली लाशें बिखरी पड़ीं थी. हर तफ़र सन्नाटा था. पुलिस सड़कों पर घूम रही थी. जमालपुर में कर्फ्यू लगा हुआ था. आज बच्चे ने पापा कव्वे से दुपाया जानवर का शिकार करना सीख लिया था. बच्चे कव्वे ने पूछा अगर दुपाया मनुष्य हमारी चालाकी समझ गया तो ये तरीका बेकार हो जायेगा. पापा कव्वे ने कहा सदियाँ गुज़र गईं मगर आजतक दुपाया जानवर हमारे इस जाल में फंसता ही आया है. सूअर या बैल के मांस का एक टुकड़ा, हजारों दुपाया जानवरों को पागल कर देता है, वो एक दूसरे को मारने लग जाते हैं और हम आराम से उन्हें खाते हैं. मुझे नहीं लगता कभी उसे इंतनी अक़ल आने वाली है. कव्वे के बेटे ने कहा क्या कभी किसी ने इन्हे समझाने की कोशिश नहीं की कव्वे ने कहा एक बार एक बागी कव्वे ने इन्हे समझाने की कोशिश की थी मनुष्यों ने उसे साम्प्रदायिक कह के मार दिया..





नारी



घर से बाहर नही जा सकती है नारी

पुरूषों का ही ये अधिकार है

घर पर लाकर बसा दी जाती है नारी

नही फांद सकती वो चार दिवारी


जो फांदे वो तो देनी पड़ती है उसे अग्नी परीक्षा

इस अग्नी की ज्वाला में कब से जल रही है नारी

केवल वो देह ही नहीं, उसमे प्राण भी है

केवल भोग का सामान ही नहीं,

उसमें स्वाभिमान भी है


पुरुष अगर कल, तो नारी आज है,

नारी से ही जुड़े देश और समाज है

नारी ही बेटी है बहन है नारी ही बीवी और मां है

नारी ही समर्पणसेवा और त्याग है


फिर क्यों सहती  घुट-घुट के अपमान ये नारी,

आंखो को सेकने के लिए दिवार पर टंगी है बेचारी

हर ओर दिखती इसकी बेबसी और लाचारी

क्यों कदम-कदम पर हो जाती कुर्बान है नारी

kitni girhi kholi hai maine kitne abhi bakhi hai... Gulzar poem


कितनी गिरहे खोली है मैने, कितनी अभी बाकी है

पांव में पायल, बाहों में कंगन

गले में हसली

कमर बंद, छल्ले और बिछूये

नाक कान छिदवाये गये

जैवर जैवर कहते कहते रीत रीवाज की रस्सीयों से जकड़ी गई

कितनी तरह से में पकड़ी गई



अब छीलने लगे हैं हाथ पांव 

और कितनी खरासे उबरी हैं

कितनी गिरहे खोली है मैने

कितनी रस्सीयां उतरी है

अंग अंग मेरा रूप रंग

मेरे नख्स नैन

मेरे बोल

मेरे आवाज में कोयल का तारीफ हुई

मेरी जुल्फ सांप मेरी जुल्फ रात

जुल्फों मे घटा मेरे लब गुलाब

आंखे शराब

गजले और नगमे कहते कहते

मे हुस्न और इश्क के अफसाने मे जकड़ी गई

उफ्फ कितनी तरह में पकड़ी गई

मै पूछूं जरा

आंखों मे शराब दिखी सबको

आकाश नही देखा कोई

सावन भादों दिखे मगर

क्या दर्द नही देखा कोई


पां की झिल्ली सी चादर मे

बट छिल्ले गये उरयानी के

तागा तागा कर पोशाके उतारी गई

मेरे जिस्म पर फन की मस्क हुई

और आर्ट कला कहते कहते

संग मरमर पे जकडी गई

बतलाये कोई.... बताये कोई

कितनी गिरहें खोली है मैने

कितनी अब बाकी है

आंदोलन लोकतंत्र के लिये शाप या अभिशाप


आन्दोलन लोकतंत्र के लिए शाप या अभिशाप आजकल  यही बात  सभी के जहन मे आ रही है. इन दिनो लगातार  बढ़ रहे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को देखते हुए... हर तरफ से कोई ना कोई अपनी अपनी आवाज मे कुछ  ना कुछ कह रहा है..
लोगो का इस तरह से खुल कर अपनी आवाज बुलंद करना शुरू हुआ पिछले साल दिसंबर में हुई दिल्ली गैंग रेप के बाद ... जिसमे लोगो ने कैण्डल मार्च से लेकर हिंसक हंगामे तक अपना विरोध प्रकट किया .
विरोध एक ऐसा शब्द या यूं कहिए एक ऐसी धारणा  जो कि तब से शुरू हुई जब से इंसान दुनिया में आया और प्रगति करने लगा. तब से विऱोध की ये धारणा इंसानी दिमागी में बैठी है...जो कि कभी क्रान्ति का काम करती है और कभी बगावत का
भारत का इतिहास विऱोधों का गवाह रहा है..कभी मुगलों की आजादी के लिए... और कभी अंग्रेजों से आजादी के लिए.. क्योंकि विरोध से ही आन्दोलन पैदा होता है... और अंग्रोजों के विरोध में भारत को आजाद कराने के लिए कई आन्दोलन हुए...आखिरकार जब भारत 1947 में एक आजाद लोक तंत्र बना तो सभी को लगा कि अब ये विरोध की धारणा बदल जायेगी..जैसे ही भारत आजाद हुआ तो इस विऱोध ने भारत पाकिस्तान को अलग कर दिया.. बाद मे आजाद भारत में इन्द्रा गांधी के द्वारा लगाई गई emergency का विरोध को आन्दोलन का नाम दिया गया.. इस विरोध को उसी आधार पर आन्दोलन का नाम दिया गया जिस आधार पर गांधी जी ने अंग्रेजो के विरोध में सत्यग्रह किया था... इस विरोध को सत्यग्रह आन्दोलन कहा गया.. आपातकाल  के विरोध में जे.पी. आन्दोलन के बाद तो जैसे भारत में आन्दोलनो का झड़ी लग गई.. भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आन्दोलन करने वाला या यूं कहे आन्दोलन झेलने वाला देश बन गया... और ये विरोध आज तक जारी है.. कभी ये विरोध भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आन्दोलन के रूप दिखता है... तो कभी नक्सली आन्दोलन के रूप में... कभी ये विरोध अलग राज्य की मांग के रूप में दिखता है.. तो कभी पर्यावरण बचायो आन्दोलन.. तो कभी महिला सुरक्षा से लेकर बीजली पानी, सड़क दूर्घटना, प्रशासन के खिलाफ लापरवाही तक के आन्दोलन आये दिन सुनायी देते हैं.... ये आन्दोलन लोकतांत्रिक बुनियाद के लिए जरूरी भी  होते  हैं.... क्योंकि इससे सत्ताधारीयों को  याद रहता है कि असली सत्ता आम लोगों के पास होती है.. और जनता मे ऐसे भी लोग है जो की हुकमारनो पर नजर रखें हैं..
मगर इस स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का एक ओर रूप भी है...जब आन्दोलन कारी इस लचीले लोकतंत्र का फायदा उठाकर इस विरोध प्रदशन को एक उग्र रूप देते हैं... जो कि आये दिन होता रहता है.... कभी सड़को पर तोड़ फोड़ तो कभी भारत बंद जिसमें लोग नारे बाजी से लेकर पथराव और बम से लेकर बन्दूक तक का उपयोग करते हैं... ये विरोध का एक छोटा सा रूप है  मगर जब ये विरोधावाद बड़ जाता है तो कभी आंतकवाद का रूप ले लेता है तो कभी नक्सलवाद का... जो कि आज कल सबसे भयानक प्रदर्शन है अपना विरोध करने के लिए..इसके पीछे अलग अलग तर्क दिये जाते हैं... कोई अलग कश्मीर की मांग कर रहा है तो कोई आजाद भारत में अपने आप को आजाद नहीं मानता....इसमें मुझे गढ़चिरौली  के एक लोक नायक की कुछ लाइने याद आ रही है सुना है ... कि आजादी मिल गई है कुछ 50 – 60 साल पहले वह लाल किले से तो चला था पर  पता नहीं कहां खो गया, उसको बहुत ढूंढा मगर अभी तक मिला नही, देखा नही आज तक कैसा है गोरा है कि काला, लंबा है या छोटा, भाई किसी को अगर मिल जाये तो हमारे गांव में जरूर भेज देना किसी ने आज तक आजादी देखी नही है....
ये लाइन लोक तंत्र का एक रूप दिखाती है जहां लोग अपने आपको आजाद नही मानते हैं...और  एक ऐसा रूप भी है जंहा लोग इतना कुछ बोल जाते है कि जैसे सारी आजादी इन्ही को मिली हो... चाहे शिवसेना का मराठी राग हो, राज ठाकरे का यू. पी. बिहार विरोधी भाषण हो, और किसी का हिन्दू विरोधी राग तो किसी का मूस्लीम विरोधी भाषण ये दर्शाता है कि हमारें समाज में हर किसी को बोलने और विरोध करने का हक है.... किसी के बयान, लेख, किताब या फिर फिल्म का विरोध और उसके बाद पाबंदी इसलिए लगाई जाती है क्योकि इससे किसी खास वर्ग या व्यकित को आहत होता है...
आखिर कार लोक तंत्र में किस तरह का विरोध होना चाहिए.. यह विरोध या आन्दोलन लोकतंत्र के लिए खतरा बने या मजबूती.. ये एक बहुत बड़ा सवाल और चिन्ता का विषय है हमारे समाज के लिए...
इसमे सिर्फ सरकार कोई ही कदम नहीं उठाने हैं बल्कि आम से लेकर खास लोग जो विरोध कर रहे हों या फिर जिनके खिलाफ विरोध हो रहा हो जरूरी है  संयम और सूझ बूझ के साथ अहिंसात्मक रूप अपनाना

पनाह


ये जिन्दगी भी अभी किस मोड़ पर है
न मंजिल है न राह है
फिर भी दिल में एक चाह है
पाना है उसे जिसे सपने मे देखा है
उसी में जिन्दगी और मौत की पनाह है ।

दूर दिखती एक रोशनी 
जिसमे अपना नूर नजर आता है
जाना है वहां, कोई न अपना जहां है
फिर भी दिखते अपने अजनबी कुछ वहां है
पाना है उसे जिसे सपने में देखा है
उसी मे जिन्दगी और मौत की पनाह है ।

लड़ाई



लड़ाई

अपने आप से लड़ रहा हूं मै
एक दोष है मुझमे जिसे दूर करना चाहता हूं
मगर न जाने क्यों अपने आप से हार जाता हूं मै
अपने हाथ से ही अपने आप को मारता जा रहा हूं

ये कैसी लड़ाई है  ?
जिसमे जीत भी मेरी, और हार भी मेरी
क्या कबूल करूं ?

ना जीत चाहता हूं ना हार
फिर भी न जाने क्यो
अपने आप से लड़ रहा हूं मैं

कई ओर भी हैं


गफ़लत के मारे कई ओर भी हैं
खुदा के सहारे कई ओर भी हैं

किस किस को देखे सोचे किसे अब
तुम्ही से हमारे कई ओर भी हैं

 नजर मैं चढ़े हो तो दिल को भी देखो
कसम से नजारे कई ओर भी हैं

जो दिल मांगा हमने तो बोले वो....
दीपक... तेरे जेसे आरे जारे कई ओर भी हैं

पर्वत-सी पीर

अपनी कविता लिखने से पहले अपने सबसे पसंदीदा कवि दुष्यन्त कुमार की खुन खो ला देने वाली  कविता ! 

पर्वत-सी पीर

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

- दुष्यन्त कुमार

देश गरीब भगवान अमीर


भारत जितना बड़ा धार्मिक देश है उतने ही ज्यादा यहां धार्मिक स्थल है... और इन धार्मिक स्थलों पर श्रद्धालुओं के द्धारा दान दिया जाता है जिसके चलते अलग-अलग मंदिरोदरगाहोंऔर गुरूद्वारों में करोड़ों रूपये की दान सम्पती पड़ी है .... इस सम्पति में नगद रूपयें के अलावा करोड़ों का सोना पड़ा है... आइए जानते है ऐसे कुछ धार्मिक स्थलों के बारे में जंहा सबसे ज्याद सम्पति है...        


   तिरुपति बालाजी 
भारत के धनी मंदिरों की लिस्ट में तिरुपति बालाजी शीर्ष पर हैं... भगवान का खजाना पूराने जमाने के राजा-महराजाओं को भी मात देने वाला है... तिरुपति के खजाने में आठ टन ज्वेलरी है... 650 करोड़ रुपए की वार्षिक आय के साथ तिरूपति बालाजी भारत में सबसे अमीर देवता है... अलग-अलग बैंकों में मंदिर का 3000 किलो सोना जमा और मंदिर के पास 1000 करोड़ रुपए फिक्स्ड डिपॉजिट हैं... 300 ईसवी के आसपास बने भगवान विष्णु के वेंकटेश्वर अवतार के इस मंदिर में रोज करीब 50 हजार से एक लाख लोग आते हैं... साल के कुछ खास दिनों विशेषकर नवरात्र के दिनों में तो यहां 20 लाख तक लोग हर दिन दर्शन करने पहुंचते हैं... बड़ी संख्या में यहां सिर्फ श्रद्धालु ही नहीं आतेबल्कि उनका चढ़ावा भी बहुत भारी-भरकम होता है... नवरात्र के दिनों में ही 12 से 15 करोड़ रुपए नकद और कई मन सोना चढ़ जाता है... बालाजी के मंदिर में इस समय लगभग 50,000 करोड़ रुपए की  संपत्ति मौजूद हैजो भारत के कुल बजट का 50वां हिस्सा है... तिरुपति के बालाजी दुनिया के सबसे धनी देवता हैंजिनकी सालाना कमाई 600 करोड़ रुपए से ज्यादा है.... यहां चढ़ावे को इकट्ठा करने और बोरियों में भरने के लिए बाकायदा कर्मचारियों की फौज है... पैसों की गिनती के लिए एक दर्जन से ज्यादा लोग मौजूद हैं और लगातार उनकी शिकायत बनी हुई है कि उन पर काम का बोझ बहुत ज्यादा है... किसी-किसी दिन तो ऐसा भी होता है कि तीन से चार करोड़ रुपए तक का चढ़ावा चढ़ जाए और रुपये-पैसे गिनने वाले कर्मचारी काम के भारी बोझ से दब जाएं.... ये तो तब हैजब बालाजी के मंदिर में आमतौर पर लोग छोटे नोट नहीं चढ़ाते... यहां सोनाचांदीहीरेजवाहरात और प्लेटिनम की ज्वेलरी तो चढ़ती ही हैसुविधा के लिए भक्त इनका बांड {bond} भी खरीदकर चढ़ा सकते हैं... बालाजी के मंदिर में हर साल 350 किलोग्राम से ज्यादा सोना और 500 किलोग्राम से ज्यादा चांदी चढ़ती है... ये स्थिति तब थी जब अंग्रेज भारत आए थे… वे बालाजी मंदिर की शानो-शौकत और चढ़ावा देखकर दंग रह गए थे... कहते हैं ईस्ट इंडिया कंपनी बड़े पैमाने पर बालाजी मंदिर से  सोना - चांदी खरीदती थी... वर्ष 2008-09 का बालाजी मंदिर का बजट 1925 करोड़ था... इस मंदिर की देखरेख करने वाले तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट ने 1000 करोड़ रुपए की फिक्स डिपोजिट कर रखी है... कुछ महीनों पहले कर्नाटक के पर्यटन मंत्री जनार्दन रेड्डी ने हीरा जडि़त 16 किलो सोने का मुकुट भगवान बालाजी को चढ़ाया था... जिसकी घोषित कीमत 45 करोड़ रुपए थी... दरअसलयेदयुरप्पा सरकार की नाक में दम करने वाले बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने खनन कारोबार में 4,000 करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया था... उसी मुनाफे का 1 प्रतिशत इन्होंने भगवान बालाजी को बतौर कमीशन अदा किया थालेकिन आप यह न सोचें कि भगवान वेंकटेश्वर या बालाजी को पहली बार इतना महंगा मुकुट किसी भक्त ने भेंट किया होगा... वास्तव में बालाजी के मुकुटों के भंडार में यह 8वें नंबर पर ही आता है... इस तरह के उनके पास पहले से ही करीब 15 मुकुट हैं... भारत के सबसे अमीर मंदिर तिरुपति के संरक्षकों ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के पास करोड़ों रुपए का सोना जमा किया है... इनसे मंदिर को आर्थिक आय होगी.. तिरुमला तिरुपति देवस्थानम् ट्रस्ट के चेयरमैन जे सत्यनारायण ने 1,175 किलो सोना स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के हैदराबाद सर्किल के जीएम टीएस कृष्णा स्वामी को सौंपा... ट्रस्ट के एक्जीक्युटिव ऑफिसर आईवाईआर कृष्णा राव और सदस्य नागी रेड्डी भी मौजूद थे... तिरुपति के पास भारत में सबसे ज्यादा सोना है और उसने इसे तिजोरियों में रखने की बजाय बैंकों में रखना शुरू किया है... इससे उसे ब्याज मिलता है... सन् 2011 में भी उसने 1,075 किलो सोना स्टेट बैंक ऑफ इडिया में रखा था ... ट्रस्ट चाहता है कि सभी बैंक उसका सोना रखें...            
 शिरडी के साईं बाबा मंदिर
सत्य साईं के निधन के बाद उनके कमरे से चौंकाने वाली जानकारी लगातार सामने आ रही है….. पुट्टापर्थी में सत्य साईं के यजुमंदिर के ग्यारह प्राइवेट कमरों से 77 लाख रुपए कीमत के सोने चांदी और हीरे जवाहरात मिले… इससे पहले भी सत्य साईं के कमरे से करीब चालीस करोड़ रुपए की संपत्ति मिली थी… शिरडी स्थित साईं बाबा का मंदिर देश के सबसे अमीर मंदिरों में से एक है... सरकारी जानकारी के मुताबिक इस प्रसिद्ध मंदिर के पास 32 करोड़ रुपए के अभूषण हैं और ट्रस्ट ने 450 करोड़ रुपए का निवेश कर रखा है...धनी मंदिरों की फेहरिस्त में इन दिनों चरम लोकप्रियता की तरफ बढ़ रहे शिरडी का साई बाबा मंदिर भी शामिल हैजिसकी दैनिक आय 60 लाख रुपए से ऊपर है और सालाना आय 210 करोड़ रुपए की सीमा पार कर चुकी है... शिरडी साई बाबा सनातन ट्रस्ट द्धारा संचालित यह मंदिर महाराष्ट्र का सबसे धनी मंदिर हैजिसकी कमाई लगातार बढ़ रही है.... मंदिर के प्रबंधकों के मुताबिक 2004 के मुकाबले अब तक 68 करोड़ रुपए से ज्यादा की सालाना बढ़ोतरी हो चुकी है... यहां भी बड़ी तेजी से चढ़ावे में सोने और हीरे के मुकुटों का चलन बढ़ रहा है... चांदी के आभूषणों की तो बात ही कौन करे...              
सिद्धिविनायक मंदिर
मुंबई में स्थित सिद्धिविनायक मंदिरमहाराष्ट्र राज्य में दूसरा और देश में तीसरे नंबर का सबसे अमीर मंदिर है…..सिद्धिविनायक मंदिर की सालाना आय 46 करोड़ रुपए है वहीं 125 करोड़ रुपए फिक्स्ड डिपॉजिट में जमा है..... इस मंदिर की सालाना कमाई 46 करोड़ रुपए वर्ष 2012 में पहुंच चुकी थीजिसमें मंदी के बावजूद इस साल इजाफा ही हुआ है.... सिद्धिविनायक मंदिर का भी 125 करोड़ रुपए का फिक्स डिपोजिट है... महाराष्ट्र के इस दूसरे सर्वाधिक धनी मंदिर की सालाना कमाई कुछ साल पहले करोड़ रुपए थी जो पिछले साल एक दशक में बहुत तेजी से बढ़ी है.... मंदिर के सीईओ हुनमंत बी जगताप के मुताबिक देश और विदेश में भक्तों की आय बढऩे के कारण मंदिर की भी आय में भारी इजाफा हुआ है... इस इंटरनेट के जमाने में मंदिर दर्शन कराने के मामले में ही नहींचंदा वसूल करने के मामले में भी हाईटेक हो चुका है... यही कारण है कि मंदिर में लाख रुपए से लेकर लाख रुपए तक के सोने और प्लेटिनम के कार्ड उपलब्ध हैं... यानी अगर आप चाहें तो लाख रुपए का कूपन खरीद कर सिद्धिविनायक भगवान गणेश को चढ़ा सकते हैंउन्हें कूपन भी पसंद है...
कुल मिलाकर हिंदुस्तान भले गरीब होयहां दुनिया के सबसे संपन्न मंदिरगुरुद्वारे और मजारें हैं… कहा जा सकता है कि भारत वह गरीब देश हैजहां अमीर भगवान बसते हैं… संख्या की दृष्टि से दुनिया में सबसे अधिक निर्धन लोग भारत में रहते हैं… इस बात का खुलासा लोकमित्र विश्व खाद्य कार्यक्रम में हुआ है… शायद यही कारण है कि दुनिया में भुखमरी से जितने लोग पीडि़त हैं उनमें से 50 फीसदी अकेले भारत में रहते हैंजिस देश में सबसे ज्यादा गरीब रहते हैंउसी देश में सबसे ज्यादा अमीर मंदिर स्थित हैं… वैसे यह बताना तो मुश्किल है कि भारत में कुल कितने मंदिर हैंलेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारत में 10 लाख से भी अधिक मंदिर हैं और इनमें से 100 मंदिर ऐसे हैं जिनका सालाना चढ़ावा भारत के बजट के कुल योजना व्यय के बराबर होगा… अकेले 10 सबसे ज्यादा धनी मंदिरों की ही संपत्ति देश के 100 मध्यम दर्जे के टॉप 500 में शामिल उधोगपतियों से अधिक है

      
    सोने के देवता

इन मंदिरों मे रूपये के अलावा सोना सबसे अधिक चढ़ाया जाता है.... भारत में जंहा सोना 32 हजार रूपये का है....  यहां के मंदिरों में सोने के मुकुट, माला, और मुर्तियां हजारों की संख्या में है.....मंदिरें में इतना सारा सोना stock के रूप में पड़ा है.... जिससे सोने के दाम लगातार बढ़ रहे है.... यदि ये सोना फिर से बाजार में आजाऐ तो काफी हद तक सोने के दाम गिर सकते है... 

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...