(एक आत्मस्वीकृति की कविता)
मैं नहीं बना छाया की तरह,
ना किसी और की चाल से चला हूँ।
मैं अपनी ही धुन में बहा,
अपने सूरज की तपिश में जला हूँ।
ना सीखा चालाकी का कोई पाठ,
ना ओढ़ा बनावटी मुखौटा कोई।
जो कहा, मन से कहा—
ना रखा छुपा सच का कोई कोना कोई।
कई बार लोग हँसे मुझ पर,
कहा—"दुनिया ऐसे नहीं चलती!"
पर मैं भी मुस्कुराया,
"दुनिया चालबाज़ों से भले भरी हो,
पर चमक प्रतिभा की ही जलती।"
मैं नहीं हूँ वह जो मोहरें बिछाए,
और पीठ पीछे चालें चलाए।
मैं वह हूँ जो रौशनी में खेले,
और हारकर भी मुस्कुराए।
प्रतिभा मेरी ढाल बनी,
ना चाहिए छल की तलवार।
सच मेरा कवच रहा,
ना चाहिए झूठी जीत का उपहार।
मैं जानता हूँ,
चालबाज़ी की जरूरत उनको पड़ती है—
जो भीतर से खोखले हैं,
जो दिखावे की चादर में सड़ते हैं।
पर मैं तो हूँ सृजन की आग,
मैं तो हूँ विचारों का संगीत।
मैं नहीं छल से जीतूँ,
मैं बनूँगा अपनी मेहनत से विशिष्ट।
मैं नहीं चलूंगा उस राह पर,
जहाँ आत्मा गिरवी रखनी पड़े।
जहाँ हर मुस्कान के पीछे,
चाल की परछाईं दिखे।
मैं तो चलूंगा नंगे पाँव,
सच की तपती ज़मीन पर।
भले कांटे चुभें, पर
दिल रहेगा साफ़—यही सबसे बड़ी जीत है।
मेरे शब्दों में दम होगा,
मेरे कर्मों में चमक होगी।
मैं नहीं बनूँगा छल का सौदागर,
मैं बनूँगा रचनात्मक आग की ढलान।
तो हाँ,
मैं चालबाज़ नहीं,
मैं प्रतिभाशाली हूँ—
और मुझे इस पर अभिमान है।
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