मैं झूठ बोल रहा हूं

यह बड़े दिलचस्प है, जो तुम कहते हो,
भलाई के सहारे बुरे हो, फिर भी न समझ पाओ।
झूठ बोलते हो, एक अच्छे कारण के लिए,
प्यार, सत्य, या दान की शरण में हो तुम कहीं।

"मैं झूठ बोल रहा हूं," तुम कहते हो,
"क्योंकि बचाना है किसी को, नहीं तो वह खो जाएगा।"
सत्य की शरण में, बुराई को तुम ढूंढते हो,
प्रेम की आड़ में, अपनी गलती को तुम सजा देते हो।

वो झूठ भी, सच के लिए ही बोला जाता है,
एक गलत रास्ता, अच्छे उद्देश्य के साथ जाता है।
लेकिन क्या कभी सोचा तुमने,
क्या झूठ भी सत्य में बदल सकता है?

तुम बुरा कर रहे हो, अच्छे कारणों के लिए,
क्या यह सच्चाई का मार्ग है, या एक भ्रम है?
भलाई की आड़ में बुराई का खेल,
क्या हम कभी समझ पाएंगे, इस दार्शनिक सवाल का हल?


विज्ञान की चेष्टा में, हिंसा का रूप

विज्ञान की खोज में, बढ़ते हैं हम,
घूंघट उतारते, बस वस्त्रों को समझ।
परंतु न मर्म, न चेतना की गहराई,
सिर्फ शरीर की परतों की छाई।

कभी सोचा है क्या, ये सब क्या है?
देह दिख जाए, फिर भी चेतना का क्या है?
जैसे सुंदर स्त्री पर गंदे हाथों का वार,
विज्ञान भी तो करता है वही विचार।

आत्मा को न पा सका, शरीर में खोकर,
हर खोज में वह दूर है, कहीं और।
घूंघट की परतें, लाज से भी गहरी,
उसके भीतर है सत्य, वही है सच्ची तहरीर।

विज्ञान की चेष्टा में, हिंसा का रूप,
न प्रकृति को समझा, न पाया उसका स्वरूप।
शरीर से पार, आत्मा का खेल,
नारी की मर्म को समझो, तब ही होगा खेल।

कभी अपने भीतर की ओर मुड़ो तुम,
तब पाओगे सत्य का अलौकिक गुम।
विज्ञान नहीं, प्रेम से ही खुलती राह,
जहां छिपा है परमात्मा का सच्चा पहरा।


विज्ञान का बलात्कार

घूंघट के रहस्य को उघाड़ते विज्ञान के हाथ,
नसों में बहते सत्य को नहीं पहचान पाए साथ।
वस्त्रों के नीचे, देह तक पहुँच गए वे,
पर मर्म न देखा, आत्मा को न देख पाए वे।

घूंघट लज्जा का, जो सृष्टि ने दिया,
उसे हटा पाए नहीं, चाहे जितनी भी कोशिशें कीं।
देह की परतों को उघाड़ने से क्या लाभ,
जब भीतर छिपी चेतना, बनी रहे अनुपलब्ध, अज्ञेय, नाप।

विज्ञान ने देखी पदार्थों की परतें,
पर आत्मा की गूंज कहाँ से सुनी जाए?
दृश्य में परमात्मा का शरीर ही आया,
लेकिन परमात्मा की आहट न पाई, कोई संदेश न आया।

एक सुंदर स्त्री, जिसे क्षणिक वस्त्रों ने ढका,
जबरदस्ती की हिंसा, नहीं पहचान सकी उसकी गहराई का रेशम।
जैसे गुंडे उसकी देह को लूट लें,
वो तो बाहर ही रहे, मर्म न समझ सके, न सूझे।

विज्ञान का बलात्कार, प्रकृति के साथ जुड़ा,
हिंसा की तरह, बिना आत्मा के सच को ढूंढ़ता।
रहस्य वही है, जो घूंघट के भीतर छुपा,
सिर्फ आँखों से नहीं, हृदय से समझो, तब सही अर्थ मिलेगा।


अहंकार का खेल



मैंने देखा, एक साधु ने,
मेरे मन के भाव को पढ़ लिया।
नाम लिया, गांव बताया,
और नीम के पेड़ का पता दिया।
मन चमत्कृत हो उठा,
सोचा, ये दिव्यता का सार है।
पर भीतर से आवाज आई,
क्या ये सच में धर्म का आधार है?

धर्म तो निर्लेप है,
न नाम, न रूप, न कोई ठिकाना।
यह संसार के खेल में खोया,
अहंकार का केवल बहाना।
साधु हो या जादूगर,
कला वही, बस रंग अलग।
पर सच्चाई कहां छुपती है,
जब सत्य का न हो कोई वल्ग।

अहंकार को चाह है,
दूसरों के ध्यान की, पहचान की।
दस हजार आंखें देखें मुझे,
या लाखों जुबानें करें वाणी।
मैं बड़ा बनूं, मैं श्रेष्ठ बनूं,
यह ख्वाहिश हर पल जलती है।
संसार का यह खेल बड़ा,
पर आत्मा तो केवल हंसती है।

साधु कहे, मैं सब जानूं,
पर भीतर का अंधकार न हटे।
राजनेता भीड़ को लुभाए,
पर सत्य का दीपक न जले।
धर्म कहां है इन बातों में,
यह तो सिर्फ अहंकार की माया।
धर्म तो मौन में खिलता है,
जहां न कोई झूठ, न छल का साया।

मैंने पूछा अपने आप से,
क्यों दूसरों को रिझाना चाहूं?
क्यों भीड़ के आगे झुककर,
खुद का अस्तित्व मिटाना चाहूं?
अहंकार चाहे बने केंद्र बिंदु,
पर आत्मा तो निराकार है।
यह चाह कि मुझे सब देखें,
पानी पर लकीरों का व्यापार है।

ध्यान में उतर, मौन को छू,
संसार की भीड़ से दूर चल।
जहां न कोई आंख देखे तुझे,
न कोई प्रशंसा का हो पल।
वहां आत्मा खिलती है,
जहां बस तू और तेरा सत्य है।
अहंकार वहीं मिटता है,
जहां न कोई पहचान का रथ है।

तो मत ढूंढ पहचान को,
यह अज्ञान का मार्ग है।
ध्यान कर, भीतर देख,
यह जीवन अनमोल उपहार है।
अहंकार की इस दौड़ से,
मुक्त हो जा, सजग बन।
धर्म वहीं खिलता है,
जहां केवल सत्य की अगन।


अहम् और आत्मा का द्वंद्व



अहम् की मूरत है क्या?
एक परछाईं, जो सच समझी जाती है,
पानी पर लकीरें खींचने का प्रयास,
जो बहने के साथ ही मिट जाती है।
मैंने देखा, साधु ने मेरा नाम लिया,
गांव की पगडंडी का चित्र खींचा,
नीम के पेड़ की शाखें गिनवाईं,
और मैं चमत्कृत हो उठा।
पर क्या यह धर्म का परिचय है?
या केवल कला का प्रदर्शन?

आत्मा तो मौन है,
सहज, सरल, निर्विकार।
उसका कोई नाम नहीं,
कोई गांव नहीं, कोई आकार नहीं।
वह तो सबके पार है,
जहां न चमत्कार है, न पहचान की लालसा।
साधु जो मेरे नाम पर खेला,
वह भी संसार के खेल में डूबा था।
अहम् का विस्तार कर,
मुझे अपने मोहजाल में लपेटा था।

अहम् का स्वभाव

अहम् चाहता है कि हर आंख मुझे देखे,
हर जुबां मेरा नाम पुकारे।
मैं सड़कों पर निकलूं,
लोग मेरी ओर ताकें।
अगर कोई न देखे,
तो मन का दर्पण चटक जाता है।
मैं हूं, पर मेरे अस्तित्व को पहचान न मिले,
यह अहंकार का सबसे बड़ा भय है।
अहम् को ध्यान चाहिए,
पर ध्यान देना नहीं आता।
वह चाहता है कि संसार उसे माने,
पर खुद को पहचानने से डरता है।

आत्मा का सत्य

आत्मा को पहचान की चाह नहीं,
न मान की भूख, न सम्मान का मोह।
वह तो मौन में खिलती है,
न कोई देखे, न सराहे,
फिर भी उसकी महक
समस्त अस्तित्व में फैलती है।
धर्म उसी आत्मा का पथ है,
जहां न नाम है, न पहचान।
जहां सत्य है, जहां शून्यता है,
जहां मैं और तुम का भेद मिट जाता है।

अहम् के जाल से बाहर

जब तक मैं दूसरों को प्रभावित करना चाहूं,
तब तक मैं खुद में नहीं हूं।
जो दूसरों के लिए जीता है,
वह अपने लिए मर चुका है।
अहम् को सजीव रखने के लिए,
दूसरों की निगाहों का भोजन चाहिए।
पर आत्मा को तो मौन चाहिए,
अकेलेपन का अमृत चाहिए।

साधु हो या जादूगर,
अगर वह चमत्कारी है,
तो समझो कि वह संसार में ही उलझा है।
धर्म तो निर्बंध है,
जहां कोई कला नहीं,
केवल समर्पण है।

अंतिम बोध

तो क्यों मैं दूसरों की निगाह का मोहताज बनूं?
क्यों उनके ध्यान से अपनी पहचान खोजूं?
ध्यान देना है तो भीतर देखूं,
जहां आत्मा का सत्य छिपा है।
अहम् तो केवल भ्रम का दीपक है,
जो जलता है, पर अंधकार देता है।
आत्मा वह सूर्य है,
जो बिना मांगे उजाला करता है।

संदेश यही है—
चमत्कारों पर मत रीझो,
अहम् को पहचानो, उसे विसर्जित करो।
आत्मा के मौन में डूबो,
जहां न मैं हूं, न तुम;
केवल सत्य है, केवल शांति।


अहंकार का भ्रम और आत्मा का सत्य



मैं चलता हूं, इस संसार के रास्तों पर,
हर कदम पर मिलता है एक नया चेहरा,
कोई सर झुकाता, कोई मुस्कुराता,
कोई अनजाने में मुझे अनदेखा कर जाता।

अहंकार कहता है, "देखो, तुम बड़े हो,
तुम्हारे नाम पर उठते हैं ये नज़ारे,
लोग तुम्हें पहचानें, ये तुम्हारी जीत है,
तुम ही हो इस संसार के हक़दार।"

पर अंदर एक हलचल है, एक सवाल,
क्या यही मेरा सत्य है?
क्या यही मेरा धर्म?
क्या इन पहचानों में मेरी आत्मा का मर्म?

किसी साधु के पास गया मैं,
उसने मेरे भूत की कहानी सुनाई,
मेरा नाम, मेरा गांव, मेरा पेड़—
उसने मेरे अतीत को सामने रखा।

मैं चमत्कृत था,
जैसे किसी जादू ने मुझे छुआ हो,
पर आत्मा ने धीरे से पूछा,
"इस जादू में क्या पाया तूने?
क्या इससे तेरा सत्य खुला?"

सच तो यह है,
यह सब दुनिया की लकीरें हैं,
नीम का पेड़, गांव का नाम,
सब भ्रम के धागों से बुनी हुई जाल हैं।

अहंकार चाहता है,
लोग मुझे देखें, मुझे सराहें,
मेरी उपस्थिति का गान करें,
मेरी छवि को पूजें।

पर आत्मा?
वह तो बस मौन है,
ना उसे पहचान चाहिए,
ना उसे किसी का ध्यान।

अहंकार लकीरों पर जीता है,
जैसे पानी पर बनती रेखाएं,
हर पहचान एक लहर है,
जो क्षण भर में मिट जाती है।

पर मैं कौन हूं?
क्या मैं उन लहरों का मालिक हूं?
या मैं वह सागर हूं,
जो लहरों के परे भी है?

साधु भी जब तुम्हें प्रभावित करता है,
वह भी एक गहरी कला दिखाता है,
पर वह भी अहंकार का खेल है,
क्योंकि आत्मा को प्रदर्शन से क्या लेना।

सच तो यह है,
असली धर्म वह है,
जहां अहंकार की आवश्यकता नहीं,
जहां पहचान का मोह नहीं।

सारी दुनिया मुझे जाने, या अनजाने,
इससे मेरी आत्मा का कुछ नहीं बदलेगा,
क्योंकि वह सत्य है,
जो किसी पहचान का मोहताज नहीं।

मैं मौन में हूं,
जहां कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं,
जहां मैं सिर्फ हूं,
और वही मेरा धर्म है, मेरा सत्य है।


अहंकार का भ्रम और आत्मा का सत्य



मैं चलता हूं, इस संसार के रास्तों पर,
हर कदम पर मिलता है एक नया चेहरा,
कोई सर झुकाता, कोई मुस्कुराता,
कोई अनजाने में मुझे अनदेखा कर जाता।

अहंकार कहता है, "देखो, तुम बड़े हो,
तुम्हारे नाम पर उठते हैं ये नज़ारे,
लोग तुम्हें पहचानें, ये तुम्हारी जीत है,
तुम ही हो इस संसार के हक़दार।"

पर अंदर एक हलचल है, एक सवाल,
क्या यही मेरा सत्य है?
क्या यही मेरा धर्म?
क्या इन पहचानों में मेरी आत्मा का मर्म?

किसी साधु के पास गया मैं,
उसने मेरे भूत की कहानी सुनाई,
मेरा नाम, मेरा गांव, मेरा पेड़—
उसने मेरे अतीत को सामने रखा।

मैं चमत्कृत था,
जैसे किसी जादू ने मुझे छुआ हो,
पर आत्मा ने धीरे से पूछा,
"इस जादू में क्या पाया तूने?
क्या इससे तेरा सत्य खुला?"

सच तो यह है,
यह सब दुनिया की लकीरें हैं,
नीम का पेड़, गांव का नाम,
सब भ्रम के धागों से बुनी हुई जाल हैं।

अहंकार चाहता है,
लोग मुझे देखें, मुझे सराहें,
मेरी उपस्थिति का गान करें,
मेरी छवि को पूजें।

पर आत्मा?
वह तो बस मौन है,
ना उसे पहचान चाहिए,
ना उसे किसी का ध्यान।

अहंकार लकीरों पर जीता है,
जैसे पानी पर बनती रेखाएं,
हर पहचान एक लहर है,
जो क्षण भर में मिट जाती है।

पर मैं कौन हूं?
क्या मैं उन लहरों का मालिक हूं?
या मैं वह सागर हूं,
जो लहरों के परे भी है?

साधु भी जब तुम्हें प्रभावित करता है,
वह भी एक गहरी कला दिखाता है,
पर वह भी अहंकार का खेल है,
क्योंकि आत्मा को प्रदर्शन से क्या लेना।

सच तो यह है,
असली धर्म वह है,
जहां अहंकार की आवश्यकता नहीं,
जहां पहचान का मोह नहीं।

सारी दुनिया मुझे जाने, या अनजाने,
इससे मेरी आत्मा का कुछ नहीं बदलेगा,
क्योंकि वह सत्य है,
जो किसी पहचान का मोहताज नहीं।

मैं मौन में हूं,
जहां कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं,
जहां मैं सिर्फ हूं,
और वही मेरा धर्म है, मेरा सत्य है।


Exploring the Intricacies of Dream, Ambition, Efforts, and Madness: A Journey of Self-Discovery Part 2



In the vast canvas of human existence, dreams emerge as whispers of the soul, weaving intricate narratives of ambition, efforts, and madness. Each dream is a beacon of possibility, igniting the fires of creativity and pushing the boundaries of what is deemed achievable.

**The Psychology of Dreams:**

Dreams, often the realm of the subconscious mind, hold the key to understanding our deepest desires and fears. They serve as windows to our innermost thoughts, painting surreal landscapes where reality intertwines with fantasy. In the tapestry of dreams, ambition takes flight, fueled by the yearning for something greater than ourselves.

**The Essence of Ambition:**

Ambition, the driving force behind human endeavor, propels individuals to reach for the stars. It is the spark that ignites passion, urging us to strive for excellence and transcend mediocrity. Like a flame dancing in the wind, ambition flickers with determination, guiding us along the path towards our aspirations.

**The Role of Efforts:**

Efforts are the building blocks of success, the sweat and tears that pave the way to greatness. With each step forward, we inch closer to our dreams, overcoming obstacles with resilience and perseverance. Efforts breathe life into ambition, transforming lofty goals into tangible realities.

**The Thin Line of Madness:**

Yet, in the pursuit of our dreams, there exists a thin line between ambition and madness. The relentless quest for perfection can push individuals to the brink of sanity, blurring the boundaries between reality and illusion. Like a moth drawn to a flame, madness ensnares the mind, fueling obsession and consuming rationality.

**The Artistry of Creativity:**

Amidst the chaos of dreams and madness lies the beacon of creativity, illuminating the path to self-discovery. Creativity transcends the confines of logic, embracing the unknown with open arms. Through poetry, art, and expression, we navigate the labyrinth of the mind, uncovering hidden truths and forging new realities.

*ख्वाबों की दुनिया में, खोये रहना,*
*उम्मीदों की चांदनी में, जले रहना।*
*माया के पर्दे में, छुपे रहस्यों को,*
*खुद से मिलने की, तलाश में, निकले रहना।*

In the intricate dance of dream, ambition, efforts, and madness, lies the essence of the human experience. It is through embracing the depths of our imagination and channeling our innermost passions that we embark on a journey of self-discovery. So let us dare to dream, to strive for the impossible, and to find beauty amidst the chaos.

Title: Exploring the Intricacies of Dream, Ambition, Efforts, and Madness: A Journey of Self-Discovery

In the vast canvas of human existence, dreams emerge as whispers of the soul, weaving intricate narratives of ambition, efforts, and madness. Each dream is a beacon of possibility, igniting the fires of creativity and pushing the boundaries of what is deemed achievable.

**The Psychology of Dreams:**

Dreams, often the realm of the subconscious mind, hold the key to understanding our deepest desires and fears. They serve as windows to our innermost thoughts, painting surreal landscapes where reality intertwines with fantasy. In the tapestry of dreams, ambition takes flight, fueled by the yearning for something greater than ourselves.

**The Essence of Ambition:**

Ambition, the driving force behind human endeavor, propels individuals to reach for the stars. It is the spark that ignites passion, urging us to strive for excellence and transcend mediocrity. Like a flame dancing in the wind, ambition flickers with determination, guiding us along the path towards our aspirations.

**The Role of Efforts:**

Efforts are the building blocks of success, the sweat and tears that pave the way to greatness. With each step forward, we inch closer to our dreams, overcoming obstacles with resilience and perseverance. Efforts breathe life into ambition, transforming lofty goals into tangible realities.

**The Thin Line of Madness:**

Yet, in the pursuit of our dreams, there exists a thin line between ambition and madness. The relentless quest for perfection can push individuals to the brink of sanity, blurring the boundaries between reality and illusion. Like a moth drawn to a flame, madness ensnares the mind, fueling obsession and consuming rationality.

**The Artistry of Creativity:**

Amidst the chaos of dreams and madness lies the beacon of creativity, illuminating the path to self-discovery. Creativity transcends the confines of logic, embracing the unknown with open arms. Through poetry, art, and expression, we navigate the labyrinth of the mind, uncovering hidden truths and forging new realities.

*ख्वाबों की दुनिया में, खोये रहना,*
*उम्मीदों की चांदनी में, जले रहना।*
*माया के पर्दे में, छुपे रहस्यों को,*
*खुद से मिलने की, तलाश में, निकले रहना।*

In the intricate dance of dream, ambition, efforts, and madness, lies the essence of the human experience. It is through embracing the depths of our imagination and channeling our innermost passions that we embark on a journey of self-discovery. So let us dare to dream, to strive for the impossible, and to find beauty amidst the chaos.


Title: Exploring the Psychology of Dream, Ambition, Efforts, and Madness: A Journey of Inner Turmoil and Creative Awakening

In the labyrinth of our subconscious minds, where dreams intertwine with ambitions, efforts, and madness, lies a realm of profound complexity and untold mysteries. It is within this enigmatic space that the human psyche grapples with the intricacies of existence, navigating through the realms of desire, determination, and delirium.

Dreams, those ethereal whispers of the soul, serve as the architects of our aspirations, shaping the contours of our deepest desires and guiding us towards the fulfillment of our most cherished goals. They are the silent orchestrators of our ambitions, fueling the fires of passion and propelling us towards greatness.

Yet, beneath the veneer of lofty dreams and noble aspirations, lies the tumultuous terrain of madness—a realm where reason surrenders to chaos, and sanity gives way to obscurity. It is here, amidst the shadows of our subconscious, that the boundaries between reality and illusion blur, and the line separating brilliance from insanity fades into obscurity.

In the pursuit of our dreams, we embark upon a journey fraught with challenges and obstacles, where every step forward is met with resistance, and every victory is tempered by adversity. It is a journey that demands unwavering resolve and unyielding determination, where the faint of heart dare not tread, and only the fearless dare to dream.

And yet, it is within the crucible of our struggles and setbacks that true creativity flourishes, as the fires of adversity forge the raw materials of our imagination into works of unparalleled beauty and brilliance. Like alchemists of the soul, we transmute our pain into poetry, our anguish into art, and our madness into masterpieces.

In the tapestry of human experience, creativity serves as both the brush and the canvas, weaving together the threads of our dreams and aspirations into a masterpiece of our own creation. It is through the act of creation that we transcend the limitations of the mundane world and glimpse the infinite possibilities that lie beyond.

As we navigate the labyrinth of our innermost thoughts and emotions, let us embrace the madness that lies within, for it is within the depths of our insanity that true genius resides. Let us dare to dream boldly, to pursue our ambitions relentlessly, and to harness the power of our creativity to shape a world that is as beautiful and brilliant as the dreams that inspire us.

In the words of the poet:

"ख्वाबों की गहराइयों में छुपी है मदहोशियां,
और हम उन मदहोशियों में खो जाते हैं।
वहाँ, सपनों की आवाज़ें हमें बुलाती हैं,
और हम उन आवाज़ों का पीछा करते हैं।"

In the depths of our dreams lies madness,
And we lose ourselves in that madness.
There, the voices of our dreams call out to us,
And we follow those voices.

Let us embrace the madness within, and let our dreams lead us on a journey of self-discovery and creative exploration. For in the pursuit of our dreams lies the true essence of our humanity, and in the depths of our madness lies the source of our greatest inspiration.

अहंकार की लीला



अहंकार की लीला बड़ी अनोखी,
हर दिल में छिपी उसकी जोखी।
वह चाहता है सबकी नजरें,
खुद को देखे हर एक नजरें।

दूसरों को प्रभावित करने की चाह,
मन में बसती है उसकी राह।
नाम, रूप, गांव का खेल,
इनसे सजाता है वह अपना मेल।

मैं सोचता हूं, क्या मेरा नाम,
संसार के हिस्से का है यह काम।
क्या मेरे गांव की मिट्टी का रंग,
मेरे होने का है कोई संग?

साधु आए, कहे मेरा भेद,
मेरा नाम, मेरा पता, मेरे देश।
पर सच में क्या उसका कुछ लेना,
उसकी आत्मा में है क्या जीना?

अहंकार बना पानी पर लकीर,
क्षण में मिटा, फिर उभरा अधीर।
दस हजार की भीड़ अगर मुझे माने,
या दस करोड़, अहंकार को भाने।

पर मैं पूछता हूं, इससे क्या होगा,
मन का शून्य कभी ना भरेगा।
जो दूसरे को देखे और माने,
क्या वह अपने भीतर झांके?

ध्यान का दीप जलाने से दूर,
अहंकार का अंधेरा है भरपूर।
वह चाहता है दुनिया का केंद्र बने,
पर खुद को देखे, तो अंतर्मन जले।

सत्य यह है, आत्मा न मौन,
न किसी को देखे, न किसी से छीन।
वह निराकार, न रूप, न नाम,
संसार के बंधनों से है वह परे।

अज्ञानियों की भीड़ को देखो,
अहंकार की आग में बहको।
राजनीति की सीढ़ियां चढ़ती है,
धर्म में भी यह अपना जाल बुनती है।

साधु जो साधु न रहे,
अहंकार के जाल में फंस गए।
नाम, पता, और गांव का खेल,
इनसे वह साधु बनाते मेल।

परंतु ध्यान की राह है अलग,
जहां न ध्यान और न कोई युग।
वहां सब शून्य है, सब मौन,
अहंकार का खेल वहां शिथिल।

तो मैं कहता हूं, देखो भीतर,
अहंकार को जानो, यह है जहर।
जो आत्मस्थ हो, वह मौन रहे,
न दूसरों को देखे, न कुछ कहे।

नजरें मोड़ो, स्वयं को जानो,
अहंकार की जड़ को पहचानो।
क्योंकि जब तक यह खेल है जारी,
शांति नहीं मिलेगी तुम्हारी आत्मा प्यारी।


अहंकार और आत्मा का संघर्ष



मैंने देखा है,
भीड़ में खड़ा वह व्यक्ति,
जिसकी आंखें झुकी हुई थीं,
लेकिन भीतर चमत्कार की ज्वाला थी।
उसकी कला,
दूसरों को प्रभावित करने की,
मुझे अचंभित कर गई।
उसने मेरा नाम लिया,
मेरे गांव का पता बताया,
और मेरे घर के पास के नीम के पेड़ का भी ज़िक्र किया।
मैं दीवाना हो गया,
उसकी ओर खिंचता चला गया।

लेकिन,
क्या यही धर्म है?
क्या यही सत्य है?
यह प्रश्न भीतर कौंधा,
जैसे अंधेरे में बिजली की चमक हो।
और भीतर से आवाज आई—
"ध्यान दो, यह प्रभाव,
सिर्फ अहंकार की चाल है।"

अहंकार क्या है?
वह हर बार चाहत में पलता है,
कि दुनिया मुझे देखे,
मुझे पहचाने,
मेरे नाम को जपती रहे।
अहंकार को भूख है—
दूसरों के ध्यान की,
दूसरों की स्वीकृति की।
लेकिन क्या यह वास्तविक है?
यह तो पानी पर बनी लकीरों जैसा है,
जो बनते ही मिट जाती हैं।

साधु कौन है?
वह जिसने जाना,
कि न कोई नाम है, न रूप है।
यह सब तो माया है,
गांव, घर, और पहचान—
सिर्फ संसार का हिस्सा हैं।
साधु वह है,
जिसने यह समझ लिया है,
कि आत्मा को किसी पहचान की जरूरत नहीं।
आत्मा स्वतंत्र है,
निराकार, निर्विकार।

अहंकार का खेल:
अहंकार कहता है,
"मुझे देखो, मुझे पहचानो।"
लेकिन आत्मा कहती है,
"मुझे किसी पहचान की जरूरत नहीं।
मैं तो बस हूं,
जैसे सूरज चमकता है,
जैसे चांद अपनी शीतलता लुटाता है।"
अहंकार की जड़ें गहरी हैं,
वह हमें परत दर परत बांधता है,
दूसरों की नज़रों में खुद को देखने की आदत बनाता है।

धर्म का स्वरूप:
धर्म तो वहां है,
जहां कोई चाहत नहीं।
धर्म वह है,
जहां चुप्पी गूंजती है,
जहां ध्यान स्वयं पर केंद्रित होता है।
धर्म का मार्ग अहंकार का अंत है,
वह पानी पर नहीं,
पत्थर पर खुदा हुआ सत्य है।

मेरी चेतना का स्वर:
मैं अब देखता हूं,
उस साधु को,
जो नीम के पेड़ का नाम लेकर,
मुझे प्रभावित करना चाहता है।
मैं समझता हूं,
वह भी कहीं गहरे,
अहंकार के तंतुओं में जकड़ा है।
लेकिन मैं जानता हूं,
आत्मा को किसी भी प्रभाव की जरूरत नहीं।

अब मैं भीतर उतरता हूं,
अपने अहंकार की परतों को पहचानता हूं।
और धीरे-धीरे,
उसे छोड़ने की कला सीखता हूं।
क्योंकि मुझे अब जानना है,
वह सत्य,
जो न नाम से बंधा है,
न रूप से।
बस है,
जैसे आकाश है,
निःसीम, निःशब्द।


अहंकार का अंधकार



मैं हूँ, बस यह जानने की चाह,
मुझे बनाती है इस जग का राजा।
हर निगाह मुझे खोजे, हर दिल मुझे पहचाने,
पर इस चाह में, आत्मा कहीं खो जाए।

कहीं कोई साधु कहे, तुम्हारा नाम, तुम्हारा गांव,
और मैं, उसके शब्दों से हो जाऊं चकित।
पर वह साधु, क्या जानता है मेरा सत्य?
या फिर बस खेलता है कला का एक और नाटक?

नीम के पेड़ की छांव से,
क्या साधु की आत्मा ऊंची हो जाती है?
या फिर मेरी जड़ता पर, वह अपनी कला दिखाता है।
पर आत्मा तो उन जड़ों से परे है,
जहां न नाम है, न गांव, न पहचान।

मैं सोचता हूँ, क्यों चाह है मुझे पहचान की?
क्यों हर निगाह मुझे खोजे, हर आवाज मुझे पुकारे?
यह चाह, मेरा अहंकार है,
जो जीता है दूसरे की स्वीकृति पर।

क्या होगा अगर दस लाख लोग मुझे देखें?
क्या होगा अगर दस करोड़ मेरा नाम गाएं?
परंतु, इन आवाज़ों के बीच,
क्या मेरी आत्मा मुझसे बात कर पाएगी?

अहंकार पानी पर खींची लकीर है,
जो दिखती तो है, पर रहती नहीं।
दूसरों की पहचान की भूख,
मुझे मेरे सत्य से दूर ले जाती है।

अहंकार कहता है, "दुनिया देखे मुझे,
मैं सबका केंद्र बनूं, हर दिल का राजा।"
पर आत्मा कहती है, "तू बस शांत रह,
अपने भीतर झांक, और सत्य को पहचान।"

ध्यान जहां है, वहीं सत्य है,
पर अहंकार ध्यान नहीं करता,
वह बस चाहता है कि दुनिया उसे देखे।
यह अजीब है, यह विरोधाभास है,
कि जो भीतर से शून्य है,
वह बाहर से सब कुछ चाहता है।

साधु हो, राजा हो, या साधारण आदमी,
अगर दूसरों को प्रभावित करने की चाह है,
तो तू आत्मस्थ नहीं है।
तू बस खेल रहा है अपने अहंकार का खेल।

मैं अब चाह नहीं रखता,
कि कोई मुझे देखे, मुझे पहचाने।
मैं बस शांत हूँ, अपने भीतर।
जहां कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं।
बस आत्मा का सत्य है,
जो हर पहचान से परे है।

अब मैं उस पानी पर खींची लकीर नहीं,
जो हर लहर में मिट जाए।
मैं अब सागर हूँ, जो गहराई में स्थिर है।
जहां न चाह है, न पहचान।
बस मैं हूँ।


अहम् का भ्रम



जब अहंकार ने डाली झलक,
मानव ने कहा, "मैं हूँ अलग।
मैं जो हूं, वो जानो सब,
मेरा नाम, मेरी पहचान, यही है रब।"

पर यह कैसा माया-जाल,
नाम-रूप का बुनता ख्याल।
गांव, जाति, घर का पता,
इनसे क्या सच्चाई का वास्ता?

साधु कहे, "तुम कौन हो, बताओ,
नीम का पेड़ तुम्हारे घर के पास है, ये सुनकर चमत्कृत हो जाओ।
पर सोचो, पेड़ क्या तुम्हारी पहचान है,
या यह भी बस संसार का भ्रम-जाल है?"

ध्यान दो, आत्मा को न कुछ चाहिए, न मांग,
वो तो बहती नदी है, बिन किसी संग्राम।
पर अहंकार, वह चाहता पहचान,
दूसरों की नजर में बनना महान।

अहंकार कहे, "देखो मुझे, जानो मेरा नाम,
मेरे बिना अधूरी है यह सृष्टि तमाम।
हर आंख मेरी ओर उठे, हर जुबां मेरा गुण गाए,
सारी दुनिया मेरे चरणों में झुके, यह मन चाहा पाए।"

पर आत्मा तो मौन है, स्थिर है शांत,
वह न मांगती ध्यान, न चाहती कोई संत।
उसकी राह तो निर्विचार की ओर है,
जहां न कोई पहचान, न कोई शोर है।

जादूगर ने सीखी कला,
मन पढ़ने की, पर वह भी चला।
सच्चा साधक वो है जो ये समझे,
कि जीवन सत्य में बसे, भ्रम को झंझे।

जो प्रभावित करना चाहे, वो अभी है अधूरा,
उसके मन में है अहंकार का सूरा।
पर जिसने पाया खुद को, वो मौन में बसा,
वो किसी का ध्यान न चाहे, न किसी से फंसा।

आओ, इस अहंकार के जाल को तोड़ें,
सत्य की ओर बढ़ें, जहां विचार न झोड़ें।
जहां कोई न देखे, न कोई पहचाने,
वहीं सच्चा आत्म-ज्ञान पाने।

नाम, रूप, गांव सब हैं जल की लकीर,
ये संसार का खेल, क्षणभंगुर अधीर।
जो इससे परे देखे, वही है ज्ञानी,
जो स्वयं में स्थिर, वही है सच्चा सानी।

अहंकार जब छूटे, ध्यान जब ठहरे,
सत्य का सूरज भीतर उगने लगे।
तो चलो उस राह पर, जो मौन की ओर है,
जहां आत्मा अमर, और शांति का छोर है।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...